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रयासार
अर्थ-जिस प्रकार धन-धान्य आदि की समृद्धि से सब जीवों को सुख होता है उसी प्रकार वीतरागी, निग्रंथ मुनियों को दान [आहारऔषध-शास्त्र आदि ] देने से सब जीवों को उत्कृष्ट सुख होता; और पुनि दान के बिना दुख होता है।
तात्पर्य—सुपात्र में दान देने से सुख और नहीं देने से दुख प्राप्त होता है।
पात्र-अपात्र का विवेक आवश्यक पत्त विणा दाणं च सुपुत्त विणा बहुधणं महाखेत्तं । चित्त विणा वय-गुण-चारित्तं णिक्कारणंजाणे ।।३१।।
अन्वयार्थ- [जिस प्रकार ] ( सुपुत्त विणा ) सुपुत्र के बिना (बहुधणं ) बहुत सा धन ( महाखेतं ) महाक्षेत्र- मकान/जमीन/जायदाद (चित्तं विणा ) भावो [की पवित्रता ] बिना ( वय-गुण-चारितं ) व्रत गुण-चारित्र ( णिक्कारणं ) निष्कारण/निष्प्रयोजन है [उसी प्रकार ] ( पत्त विणा ) सुपात्र के बिना ( दाणं ) दान ( णिक्कारणं ) निष्प्रयोजन ( जाणे ) जानो।
अर्थ—जिस प्रकार सुशील पुत्र सुपुत्र के बिना बहुत धन [ महाक्षेत्र जमीन-जायदाद और भावों की पवित्रता के बिना व्रत-गुण-शील, चारित्र निष्प्रयोजन हैं उसी प्रकार सुपात्र के बिना दिया गया दान निष्प्रयोजन जानो । अर्थात् सुपात्र के बिना दिया गया दान निष्फल है।
निर्माल्य द्रव्य के भोग का दुष्परिणाम जिण्णुद्धारं-पत्तिट्ठा-जिणपूया-तित्थ-वंदण वसेस-धणं । जो भुंजइ सो भुंजइ, जिणदिलु परय-गइ दुक्खं ।।३२।।
अन्वयार्थ--जो ( जिण्णुद्धारं ) जीर्णोद्धार ( पतिट्ठा ) प्रतिष्ठा (जिण-पूया ) जिनपूजा ( तित्य-वंदण ) तीर्थयात्रा के ( वसेस-धण ) अवशिष्ट धन को ( भुंजइ ) भोगता है ( सो ) वह ( णरय-गइ )