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रयपासार
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लोभी को पात्र-अपात्र का विचार नहीं जस-कित्ति-पुण्ण-लाहे, देइ सुबहुगं-पि जत्थ तत्थेव । सम्माइ सुगुण भायण, पत्त-विसेसंण जाणंति ।। २७।।
__ अन्वयार्थ--- [लोभी पुरुष ] ( जस ) यश ( कित्ति ) कीर्ति [ और ] ( पुण्णलाहे ) पुण्य लाभ/प्राप्ति के लिए ( जत्थ तत्थेव ) यत्र-तत्र [ पात्र की अपेक्षा न कर ] कुपात्र-अपात्र में ( सुबहुगं-पि ) बहुत भी ( देइ ) दान देता है- वह ( सम्पाइ-सुगुण-भायण ) सम्यक्त्व आदि उत्तम गुणों के भाजन/आधार/स्वामी ( पत्त-विसेसं ) सुपात्र/पात्र विशेष ( ण ) नहीं ( जाणंति ) जानते हैं ।
अर्थ-लोभी पुरुष यश, कीर्ति, पुण्य प्राप्ति के लिए जहाँ-तहाँ, जिस-तिस-अपात्र, कुपात्र में बहुत सारा दान भी दे देते हैं वे सम्यक्त्वज्ञान-चारित्र/रत्नत्रय आदि उत्तम गुणों के स्वामी सुपात्रों को तो जानते ही नहीं हैं । तात्पर्य यह है लोभी पुरुष को ख्याति-पूजा-लाभ की ऐसी लिप्सा रहती है कि वह पात्र की पहचान ही नहीं करता, सच भी है कि उत्तम पात्रों का दाता भी निर्लोभी ही होता है । लोभी को उत्तम पात्रों का संयोग मिल भी कैसे सकता है।
कामनाकृत दान निरर्थक जंतं-मंतं-तंतं परिचरियं, पक्खवाद पिय-वयणं । पडुच्च पंचम-याले भरहे दाणंण किं पि मोक्खस्स ।।२८।। __ अन्वयार्थ--( भरहे ) भरतक्षेत्र में ( पंचम-याले ) पंचमकाल में ( जंतं-मंतं-तंतं ) यंत्र-मंत्र-तंत्र ( परिचारियं ) परिचर्या/सेवा ( पक्खवाद ) पक्षपात ( पिय-वयणं ) प्रियवचन ( पडुच्च ) प्रतीति/ विश्वास के लिए दिया हुआ ( किं पि) कोई भी ( दाणं ) दान . ( मोक्खस्स ण ) मोक्ष का कारण नहीं है।