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रमणसार सदा ( णिरालसया ) आलस्य रहित होकर ( अणयाराणं ) मुनियों की ( जाणिज्जा ) प्रकृति आदि जानकर ( वेज्जावच्चे ) वैय्यावृत्य ( कुज्जा ) करनी चाहिये।
अर्थ-जैसे इस लोक में माता-पिता अपने गर्भ में होने वाले बालक का सावधानी से पालन करते है, उसी प्रकार सदा निरालसी होकर मुनियों की प्रकृति आदि जानकर वैव्यावृत्य करनी चाहिये । अर्थात् जैसे मातापिता अपने गर्भ से उत्पन्न बालक का भरण-पोषण, लालन-पालन और सेवा-सुश्रूषा एकाग्रता और प्रेमभाव से करते हैं वैसे ही सुपात्र की सेवा, वैय्यावृत्य, आहार-पान व्यवस्था, निवासस्थान आदि के द्वारा पात्र की मात-पित्त-कफ-पकृति और दळ्य-क्षेत्र काल-भाव के उपसर्गों को विचार कर करें।
दाता के भाव की अपेक्षा दान के फल में भिन्नता सप्पुरिसाणं दाणं, कप्प-तरूणं फलाण सोहा वा ।। लोहीणं दाणं जइ, विमाण सोहा सवं जाणे ।। २६।। ___अन्वयार्थ--( सप्पुरिसाणं ) सत्पुरुषों/सम्यग्दृष्टि का ( दाणं ) दान ( कल्पतरूणं ) कल्पवृक्ष के ( फलाण ) फलों की ( सोहा ) शोभा ( वा ) समान होता है ( लोहीणं ) लोभी पुरुषों का ( जइ ) जो ( दाणं ) दान है- वह ( विमाण सर्व ) अर्थी के शव के समान ( सोहा ) शोभा है ( जाणे ) ऐसा जानो ।
अर्थ—सज्जन पुरुषों/सम्यग्दृष्टि जीवों का दान [ इच्छित फल को देने वाला होने से ] कल्पवृक्ष के फल्न को शोभा को प्राप्त होता है और लोभी पुरुष का दान [ भीतर में पश्चाताप की अग्नि को दहकाने से ] अर्थी के शव के समान शोभा को प्राप्त होता है अर्थात् निरर्थक होता है ऐसा जानो। ।
१. वा-अथवा, अन्धारणा, निश्चय. मादश्य, समानता, उपमा, पादपूर्ति । २. जाद-यदि, जो, अगर |