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रयणस्तर
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विशेष-मुनि या अन्य भी मध्यम-जपन् पात्रों की प्रकृति में वात-पित्त-कफ में से किसकी प्रधानता है, अभी कौन सा काल / ऋतु चल रही हैं - शीत या उष्ण, मुनिराज ने कायोत्सर्ग या अन्य आसनों से वैयावृत्ति में या गमनागमन क्रिया में कितना श्रम किया है, पात्र के ज्वर, संग्रहणी आदि कोई व्याधि की पीड़ा तो नहीं हैं, कायक्लेश व उपवास की अधिकता से उनके कंठ में शुष्कता तो नहीं है, इत्यादि समस्त बानों का विवेक रखते हुए विवेकपूर्वक पात्र की प्रकृति और ऋतु के अनुकूल संवर्धक आहार देना चाहिये । ("दान में विवेक महान् है" )
आहारदान के लिए देय वस्तु में विवेक
हिय मिय-मण्णं पाणं, णिर वज्जोसहिं णिराउलं ठाणं । सवणासण- मुववरणं, जाणिज्जा देइ मोक्ख- मग्ग-रदो ॥। २४ ।। अन्वयार्थ - - ( मोख - मग्ग - रदो ) मोक्ष मार्ग में रत व्यक्ति ( हियमियं ) हितकर मित ( अगं ) अन्न को ( पूर्ण ) पेय पदार्थों को (रिवज्जोसहिं ) निर्दोष औषधि को ( णिराउ ) निराकुल ( ठाणं ) स्थान को ( सयणासणं-उवयरणं ) शयन और आसन/ बैठने के उपकरण / ( जाणिज्जा ) आवश्यकता जानकर ( देइ) देता है।
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अर्थ – मोक्षमार्ग में अनुरक्त जीव सुपात्रो में हितकारी और मित भोजनपानी / पेय पदार्थों निर्दोष औषधि, निराकुल स्थान, शयनोपकरण ( चटाई, पाटा आदि) और आसनोपकरण- [ आसन पाटा आदि ] आदि उनकी आवश्यकता को जानकर देता है।
मुनियों की वैयावृत्य कैसे करें ?
अणयाराणं वेज्जावच्चं कुज्जा जहेह जाणिज्जा । गब्भन्भमेव मादा पिदुच्च णिच्चं तहा णिरालसया ।। २५ ।।
अन्वयार्थ - - ( जहेह ) जैसे इस लोक मे ( मादा- पिदुच्च ) माता और पिता ( भभमेव ) गर्भ स्थित शिशु का / गर्भ से उत्पन्न शिशु का सावधानी से पालन करते हैं ( तहा ) उसी प्रकार ( णिच्चं )