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रयणसार
और
उत्तम स्वभाव, उत्तम गुण, उत्तम चारित्र, समस्त सुखों का अनुभव वैभव यह सब सुपात्र दान का फल जानो ।
आहार -दान के बाद बचे शेषान्न का महत्त्व
जो मुणि- भुत्त-वसेसं, भुंजइ सो भुजए जिणुदिनं । संसार सार-सोंक्ख, कमसो णिव्वाणवर सोक्खं ।। २२ ।।
अन्वयार्थ - ( जो ) जो भव्यात्मा ( मुणि-भुत्त-वसेसं ) मुनि के आहार के पश्चात् अवशिष्ट अन्न को [ पवित्र मानकर ] ( भुञ्जइ ) खाता है ( सो ) वह ( संसार - सार - सोक्खं ) संसार के सारभूत सुखों को और ( कमसो) क्रमश: ( णिव्वाण - वर सोक्खं ) मोक्ष के उत्तम सुख को ( भुंजए ) भोगता है ऐसा ( जिणुद्दिहं ) जिनेन्द्र देव ने कहा है।
अर्थ - जो भव्यात्मा मुनियों के आहार दान के पश्चात् अवशिष्ट अन को [ पवित्र मानकर ] खाता है, वह संसार के सारभूत सुखों को और क्रमशः मोक्ष के उत्तम सुखों को भोगता हैं। ऐसा जिनेन्द्र देव का वचन है ।
आहार दान में विवेक
सीदुण्ह वाउ- पिठलं, सिलेसिम्मं तह परिसमं वाहिं । काय - किलेसुववासं, जाणिज्जा दिण्णए दाणं ।। २३ ।।
अन्वयार्थ - ( सीदुण्ह ) शीत व उष्णकाल ( वाउ-पिठलंसिलेसिम्मं ) वात-पित्त-कफ ( परिसमं ) परिश्रम ( तह ) तथा ( वाहिं ) व्याधि ( काय-किलेसुववासं ) काय-क्लेश, उपवास ( जाणिज्जा ) जानकर ( दाणं ) दान ( दिण्णए ) दिया जाता है ।
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अर्थ- शीत या उष्ण (काल- ऋतु) मुनि की प्रकृति- वात, पित्त या कफ [ प्रधान ] हैं गमनागमन या ध्यान आसनों में होने वाले – परिश्रम, रोग, कायक्लेश तप और उपवास आदि [ आदि का विवेक रखते हुए ] जानकर दान दिया जाता है ।