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रयणसार
दान के सात क्षेत्रों के नाम अन्य ग्रंथ से
जिग- भवन- बिम्ब, पोत्थ्य संघ सरुवाई सत्त खत्तसु । जं बइयं धणबीयं, तमहं अणुमोयए सकमं ।।
अर्थात् जिनभवन, जिनबिम्ब, जिनशास्त्र और मुनि आर्यिका श्रावकश्राविका रूप चतुर्विध संघ इन सात क्षेत्रों में जो धनरूपी बीज बोया जाता हैं। मैं उस अच्छे कर्म की अनुमोदना करता हूँ ।
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सांसारिक सुख भी सुपात्र दान के बिना नहीं मादु- पिदु पुत्त- मित्तं, कलत्त- धण- घण्णवत्थु वाहणं विहवं । संसार-सार- सोक्खं, सव्वं जाणह सुपत्त- दाणफलं ।। १९ । ।
अन्वयार्थ --- ( मादु-पिदु - पुत्त - मित्तं ) माता- पिता-पुत्र- मित्र ( कलत्तं ) स्त्री ( भ्रण ) गाय-भैंस आदि पशु ( धरण ) धान्य / अनाज ( वत्थु ) मकान ( वाहण ) वाहन (विहवें ) संपत्ति, आभूष आदि वैभव ( संसार-सार-सोक्खं ) संसार के उत्तमोत्तम सुख ये ( सव्यं ) सब ( सुपत्त-दाणफलं ) सुपात्र में दिये दान का फल ( जागह ) जानो ।
अर्थ – संसार के उत्तमोत्तम सुख, माता- पिता-पुत्र - मित्र-स्त्री-धन ( चौपाये पशु आदि ) धान्य (गेहूँ, चावल आदि) मकान, वाहन तथा संसार के समस्त वैभव-संपत्ति, आभूषण आदि ये सब सुपात्र में दिये गये दान का फल जानो ।
सुपात्रदान से चक्रवर्ती का वैभव
सत्तंग रज्जावणिहि - भंडार संडंगबल - चउस रयणं । छण्णवदि सहस्सित्थी, विहवं जाणह सुपत्त- दाणफलं ।। २० ।।
अन्वयार्थ - ( सत्तंग - रज्ज ) सप्तांग राज्य ( णवणिहि ) नवनिधि ( भंडार ) कोष ( सडंगबल ) छह प्रकार की सेना ( चउद्दसरणं ) चौदह रत्न ( छण्णवदि सहस्सित्थी ) छियानवे हजार स्त्रियाँ [ और ] ( विहवं ) वैभव यह सत्र ( सुपत्त - दाणफलं ) सुपात्रदान का फल ( जाणह ) जानो ।