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रयणसार
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अच्छे बीज की तरह, उत्तम द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से उत्तम पात्रों में दिया हुआ दान, विपुल फत्त का प्रदाता होता है, ऐसा जानो
सप्तक्षेत्रों में दिये गये दान का फल
इह णिय सुवित्त वीयं, जो ववइ जिणुत्त- सत्त-खेत्तेसु । सो तिहुवण - रज्ज - फलं, भुंजदि कल्लाण- पंचफलं ।। १८ ।। अन्वयार्थ - ( जो ) जो पुरुष ( जिणुत्त ) जिनेन्द्र देव द्वारा कहे गये ( सत्त-खेत्तेसु) सप्त क्षेत्रों में (णिय - सुवित्त - वीयं ) अपने नीति पूर्वक/न्यायोपार्जित श्रेष्ट धनरूपी बीज को ( ववइ ) बोता है ( सो ) वह्न ( इह ) इस लोक में ( तिहुवण - रज्ज - फलं ) तीनों भुवनों राज्यरूपी फल को और ( कल्लाण- पंचफलं ) पंत्र कल्याणक रूप फल को ( भुंजदि ) भोगता हैं ।
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अर्थ – जो भव्यात्मा/ निकट भव्य पुरुष अपने न्याय से उपार्जित श्रेष्ठ धनरूपी बीज को भी भूमियों में बीता है. वह इस लोक में त्रिभुवन के राज्यरूप फल को और गर्भ जन्म-तप-ज्ञान-मोक्ष रूप पंचकल्याणक को भोगता है अर्थात् अपने न्यायोजित धन को सप्त क्षेत्रों में दान देने वाला जीव सांसारिक सर्वश्रेष्ठ सुखों को भोगकर अन्त में तीर्थंकर पद से विभूषित होकर मुक्तिपद को प्राप्त करता है। वे सात स्थान कौन से हैं
दान के सात स्थान
जिनबिम्बं जिनागारं जिनयात्रा महोत्सवं । जिनतीर्थं जिनागमं जिनायतनानि सप्तधा ||
१. जिनबिंब, २ जिनमंदिर, ३ जिनयात्रा ४. पंच कल्याणक महोत्सव, ५. जिन तीर्थोद्धार, ६. जिनागम प्रकाशन आदि, ७. आयतन ये सात दान के योग्य क्षेत्र हैं ।
जिन
आयनन — सम्यग्दर्शनादि गुणो के आधार / आश्रय / निमित्त को आयतन कहते हैं।