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रयणसार
क्या प्रयोजन हैं ? अर्थात् श्रावक का कर्तव्य है, जिनमुद्रा मात्र देखकर आहार दान देवे। जिनमुद्रा में पात्र-अपात्र का विचार करने में कोई प्रयोजन नहीं हैं; क्योंकि श्रावक भोजन मात्र दान देने से धन्य हो जाता है ।
सुपात्र दान से परम्परा मुक्ति प्राप्ति दिण्णइ सुपत्त- दाणं, विसेसदो होड़ भोग-सग्गमही । णिव्वाण- सुहं कमसो, णिट्टिं जिणवरिं देहिं ।। १६ ।।
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अन्वयार्थ - ( जिणवरिं देहिं ) जिनेन्द्र देव ने ( णिद्दिट्ठ ) कहा है कि ( सुपत्त- दाणं दिष्णइ ) सुपात्र में दान को दिया जाता हैतो ( विसेसदो ) विशेष रूप से ( भोग-सग्गमही ) भोगभूमि व स्वर्ग ( होदि ) प्राप्त होता है और (कमसो ) क्रमश: ( णिव्वाण - सुहं ) निर्वाण सुख प्राप्त होता है।
अर्थ - जिनेन्द्र देव ने कहा है कि [ यदि ] सुपात्र में दान दिया जाता हैं तो विशेष रूप से भोगभूमि व स्वर्ग को प्राप्त करता है तथा क्रमशः मुक्ति-सुख / मोक्ष के सुखों की प्राप्ति करता है ।
उत्तम पात्र में दिया दान उत्तम फल प्रदाता
खेल - विसेसे काले, वविय सुवीयं फलं जहा विउलं । होइ तहा तं जाणह, पत्त - विसेसेसु दायफलं ।। १७ ।।
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अन्वयार्थ - ( जहा ) जिस प्रकार ( खेत्त-विसेसे) विशेष - उत्तम क्षेत्र में ( काले - विसेसे) विशेष योग्य काल में ( वविय) बोया गया ( सुवीयं ) उत्तम बीज ( विउलं ) विपुल (फलं ) फलवाला ( होइ ) होता है । ( तहा ) उसी प्रकार ( पत्त-विसेसेसु ) विशेष — उत्तम पात्रों में दिये ( तं ) उस ( दाणफलं ) दान के फल को ( जाणह ) जानो ।
अर्थ -- जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में, उपयुक्त / योग्य काल में बोये हुए उत्तम बीज का विपुल फल मिलता है, उसी प्रकार उत्तम पात्रों में दिये गये उस दान के फल को जानो अर्थात् उत्तम क्षेत्र, योग्य काल में बोये गये