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रयणसार
मनियों को दान देता है ( सो ) वह ( सम्माइट्ठी ) सम्यग्दृष्टि ( धम्मी ) धर्मात्मा ( सावय ) श्रावक ( मोक्ख-मग्ग-रदो ) मोक्षमार्ग मे रत है।
अर्थ-जो श्रावक प्रतिदिन अपनी शक्ति के अनुसार जिनेन्द्रदेव की पूजा करता है, मुनियो को दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा श्रावक मोक्षमार्ग में रत/मोक्षमार्गी है।
पूजा व दान का फल पूयफलेण तिलोक्के, सुरपुज्जो हवइ सुद्धमणो । दाणफलेण तिलोए, सारसुहं भुंजए णियदं ।।१४।।
अन्वयार्थ--( सुद्धमणो ) शुद्ध मन वाला श्रावक ( णियदं ) निश्चय से ( पूयफलेण ) पूजा के फल से ( तिलोक्के ) तीनों लोकों में ( सुरपुज्जो ) देवों से पूज्य ( हवइ ) होता है ( दाणफलेण ) दान के फल से ( तिलोए ) तीन लोक में ( सारसुहं ) सारभूत सुखों को है ( भुंजए ) भागता हैं।
अर्थ- शुद्ध मन वाला श्रावक निश्चय से/नियम से पूजा के फल से तीनों लोकों में देवा से पूज्य होता है और दान के फल से तीनों लोको में सारभूत सुखो को भोगता है।
जिनमुद्रा में विचार कैसा ? । दाणं भोयण-मेत्तं, दिण्णइ घण्णो हवेइ सायारो। पत्तापत्त-विसेस, सईसणे किं वियारेण ।।१५।।
अन्वयार्थ-( मायारो) श्रावक ( भोयण-मेत्तं ) भोजनमात्र ( दाणं ) दान { दिण्णइ ) देता है तो वह ( धण्णो ) धन्य ( हवेइ ) हो जाता है ( सईसणे ) जिनलिंग को देखकर ( पत्तापत्त-विसेसं ) पात्र-अपात्र विशेष के ( वियारेण ) विचार/विकल्प से ( किं ) क्या लाभ है ?
अर्थ- श्रावक भोजनमात्र दान देता है तो वह धन्य हो जाता है, जिनलिंग को देखकर पात्र-अपात्र विशेष का विकाल्प या विचार करने से