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रयणसार
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और अभयदान व देव- शास्त्र - गुरु की पूजा श्रावक का मुख्य कर्तव्य है दान और पूजा के बिना श्रावक का धर्म व्यर्थ है। वह श्रावक श्रावक नहीं कहलाता । [तथा ] मुनि धर्म में ध्यान और अध्ययन मुनि के मुख्य कर्तव्य हैं। ध्यान और अध्ययन के बिना मुनिधर्म भी वैसा ही व्यर्थ हैं, जैसे श्रावक धर्म |
बहिरात्मा की परिणति पतंगे के समान
दाण धम्पुण चागुण, भोगु ण बहिरप्प जो पयंगो सो । लोह - कसायग्गि मुहे पडियो मरियो ण संदेहो । । १२ ।।
अन्वयार्थ - ( जो ) जो श्रावक ( दाणु) दान (ण) नहीं देता ( धम्मु ण) धर्म- पालन नहीं करता ( चागु ण ) त्याग नहीं करता ( भोगु ण) न्यायपूर्वक भोग नहीं करता ( सो ) वह (बहिरप्प ) बहिरात्मा (पयंगो) पतंगा है ( लोह कसायग्गि मुहे ) लोभकषाय रूपी अग्नि के मुख में ( पडियो ) पड़ा हुआ (मरियो ) मर जाता है ( संदेहो ) इसमें संदेह ( ण ) नहीं है ।
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अर्थ – जो श्रावक सुपात्र में दान नहीं देता है। अष्टमूलगुण व्रत, संयम, पूजा आदि अपने योग्य धर्म का पालन नहीं करता है । न्यायनीतिपूर्वक भोग नहीं भोगता है; वह बहिरात्मा है / मिथ्यादृष्टि हैं । [ जैनधर्म धारण करके भी जैनधर्म से बाह्य है ] वह ऐसा पतंगा हैं जो लोभकषायरूपी अग्नि के मुख में पड़ा हुआ मर जाता है। अर्थात् जिस प्रकार पतंगा अग्नि के लोभ में फँसकर अपना जीवन खो देता है उसी प्रकार बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव लोभकषायरूपी अग्नि में पड़कर मर जाता है, इसमें संदेह नहीं हैं ।
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पूजा दान धर्म को करने वाले सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी हैं
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जिण पूजा मुणि दाणं, करेइ जो देइ सत्तिरूवेण ।
सम्माइट्ठी सावय- धम्मी सो होड़ मोक्ख- मग्ग-रदो । । १३ ।। अन्वयार्थ - ( जो ) जो ( सत्तिरूवेण ) शक्ति के अनुसार
(जिण पूजा करेइ ) जिनदेव की पूजा करता है ( मुणि दाणं देइ )
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