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रयणसार --जो मनुष्य जिनेन्द्र देव नियम गुर र सिनेद्र देव कथित जिनागम/सच्चे शास्त्रों में भक्ति करते हैं। इनके भक्त हैं, संसार-शरीर-भोगों
से विरक्त हैं। इनके परित्यागी होते हैं, सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र, रत्नत्रय से ' संयुक्त होते है, ने मनुष्य मुक्तिसुख को प्राप्त करते है।
सम्यग्दर्शन के बिना दीर्घ संसार दाणं-पूजा-सीलं, उववासं बहुविहं पिखवणं पि । सम्मजुदं मोक्खसुहं, सम्मविणा दीह-संसारं ।।१०।। ___अन्वयार्थ--( सम्मजुदं ) सम्यग्दर्शन से युक्त ( दाणं-पूजासील ) दान, पूजा, शील ( बहुविहं पि ) अनेक प्रकार के ( उववासं ) उपवास (खवणं पि ) कर्मक्षय में कारणभूत व्रत भी ( मोक्खसुहं ) मोक्षसुख के कारण हैं [और ] ( सम्मविणा ) सम्यग्दर्शन के बिना [ये ही ] ( दीह-संसार ) दीर्घ संसार के करणभूत हैं।
अर्थ—सम्यग्दर्शन से सहित जीव का दान-पूजा-शील, अनेक प्रकार के उपवास, कर्मक्षय में कारणभूत व्रत [ संयमादि-मुनिलिंग, श्रावक के एकदेश व्रत ] आदि सर्व मोक्षसुख के हेतु हैं । और सम्यग्दर्शन के बिना वे ही व्रततप-पूजा-दान-संयम-उपवासादि सर्व ही संसार को बढ़ाने वाले हैं ।
श्रावक व मुनि-धर्म में मुख्य क्या ? दाणं-पूया-मुक्खं, सावयधम्मे पा सावया तेण विणा । झाणाज्झयणं मुक्खं, जइधम्मे तं विणा तहा सो वि ।।११।।
अन्वयार्थ-( सावयधम्मे ) श्रावक धर्म में ( दाणं-पूया ) दान और पूजा ( मुक्खं ) मुख्य है ( तेण ) उसके ( विणा ) बिना ( सावय ) श्रावक (ण ) नहीं होता है । ( झाणाज्झयणं ) ध्यान और अध्ययन ( जइधम्मे ) यति धर्म में ( मुक्खं ) मुख्य हैं ( तं विणा ) उस ध्यान और अध्ययन के बिना ( सो वि ) वह मुनि धर्म भी ( तहा ) वैसा ही व्यर्थ है ।
अर्थ-श्रावक धर्म में चार प्रकार का दान-आहार, औषध, शास्त्र