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रयणसार
१२३ आदा ख माझ णाणे. आदा में दसणे चरित्ते य ।
आदा पच्चारखाणे आदा में संवरे जोगे ।। ५८||भा.प्रा. ।। मेरा आत्मा ही ज्ञानरूप कार्य की उत्पत्ति में निमित्त है, ज्ञान की उत्पत्ति में बाह्य उपकरण पुस्तक आदि कारण नहीं हैं । दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व में मेरा आत्मा ही विद्यमान है, मेरा आत्मा ही सम्यक्त्व रूप कार्य की उत्पत्ति में कारण है अन्य तीर्थ यात्रा जप-तप नहीं तथा चारित्र की उत्पत्ति में भी मेरा आत्मा ही मेरा कार्य-कारण रूप है इसी प्रकार आस्त्रव निरोध रूप संवर, प्रत्याख्यान व योग में भी आत्मा ही मेरा कारण व कार्य है । अत: निर्मल आत्मा ही समय है । मोक्षमार्गी साधु का रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही गण-गच्छ व संघ हैं।
[यहाँ उपादान कारण की अपेक्षा आत्मा ही ज्ञान-दर्शन-चारित्रप्रत्याख्यान संवर व योग का कारण व कार्य कहा है। यहाँ इस कथन से बाह्य कारणों का सर्वथा निषेध नहीं समझना चाहिये । ]
कर्मक्षय का हेतु सम्यक्त्व मिहरो महंध-यारं मरुदो मेहं महावणं दाहो । वज्जो गिरि जहा विय-सिंज्जइ सम्मं तहा कम्मं ।।१५९।।
अन्वयार्थ--( जहा ) जैसे ( मिहरो ) सूर्य ( महंध-यारं ) महाअन्धकार को ( मरुदो) वायु ( मेहं ) मेघ को ( दाहो ) अग्नि ( महावणं ) महावन को ( वज्जो ) वज्र ( गिरिं ) पर्वत को ( वियसिंज्जई ) विनष्ट कर देता है ( तहा ) वैसे ही ( सम्मं ) सम्यादर्शन ( कम्मं ) कर्म को क्षय करता है। ___अर्थ--जैसे-सूर्य महा अन्धकार को तत्काल नष्ट कर देता है, हवा का एक झकोरा घनघोर बादलों को क्षण में उड़ा देता है, अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी भी महावन को जला देती है, वज्र बड़े से बड़े पर्वत को काट कर विनष्ट कर देता है, वैसे ही सम्यग्दर्शनरूपी महारत्न कर्मों का क्षय करता है । अर्थात् एक क्षण के लिए भी सम्यग्दर्शनरूपी महारत्न प्राप्त हो गया तो जीव के अनन्त संसार को बढ़ाने वाले कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं।