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रयणसार
सम्यकदर्शन रूपी रत्न दीपक मिच्छंधयार-रहियं हिय-मज्झमिव सम्म-रयण-दीव कलावं । जो पज्जलइ स दीसइ सम्मं लोयत्तयं जिणुदिटुं ।।१६।।
अन्वयार्थ---( मिच्वंगार-रहियं : मिथ्याजली का से रहित, हुआ ( जो ) जो भव्यात्मा ( हिय-मज्झमिव ) हृदय के मध्य में ( सम्म-रयण-दीव-कलावं ) सम्यक्त्व रत्न रूपी दीपक को ( पज्जलइ ) प्रज्वलित करता है ( स ) वह ( सम्म ) समीचीन प्रकार से ( लोयत्तयं ) तीन लोक को ( दीसइ ) देखता है । ___अर्थ-जो भव्यात्मा मिथ्यात्वरूपी अंधकार को अपने आत्मा से दूर हटाकर अपने हृदयरूपी मंदिर के भीतर सम्यक्त्व रत्न रूपी दीपक को जलाता है/प्रज्वलित करता है, वह समीचीन प्रकार से तीन लोक को देखता है । अर्थात् वह सम्यग्दर्शन रूपी दीपक के साथ ज्ञान और चारित्ररूपी रत्नमयी दीपकों के द्वारा अपनी आत्मा को प्रकाशमान करता हुआ केवलज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश को प्राप्त करता है; तभी तीन लोक के पदार्थों को अच्छी तरह देखता है । तात्पर्य है कि सम्यग्दृष्टि जीव ही केवलज्ञान ज्योति को प्राप्त कर लोकत्रय को देखता है ।
जिनेन्द्रवचनों का अभ्यास मोक्ष का हेतु पवयण-सारन्भासं परमप्प-झाण-कारणं जाण । कम्मक्खवण-णिमित्तं, कम्मक्खवणे हि मोक्खसुहं ।।१६।।
अन्वयार्थ ( पवयण-सारभार्स ) जिनेन्द्र कथित वचनों का/ श्रुत का अभ्यास ( परमप्प-ज्झाण-कारणं जाण ) परमात्मा के ध्यान का कारण जानो । परमात्मा का ध्यान ( कम्मक्खवण-णिमित्तं ) कर्मक्षय का निमित्त है ( कम्मक्खवणे हि ) कर्मों का क्षय होने पर निश्चय ही ( मॉक्खसुहं ) मोक्ष-सुख की प्राप्ति होती है। ___ अर्थ-हे भव्यात्माओं ! वीतराग-सर्वज्ञ हितोपदेशी शिवंकर जिनेन्द्र देव के श्रेष्ठ वचन द्वादशांग श्रुत का अभ्यास करो। श्रुत के अभ्यास से आत्म