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रयणसार आचार्य कहते हैं हे भव्यात्माओं ! जिनलिंग सर्वलोक में श्रेष्ठ हैं। जैसे रलों में जी वृक्षों में बन्दर श्रेष्ठ है, मैं ही सबलिंगों में जिनलिंग श्रेष्ठ है । यह एक महानिधि है । इस निर्मल लिंग को धारण करके भी यदि वसति उपकरण गण-गच्छ, संस्तर, शिष्य, वस्त्र आदि के प्रति ममकार भाव बना रहा, आर्त-रौद्र ध्यान बना रहा तो मात्र बाह्य नग्नता से कर्मों का क्षय नहीं हो सकेगा। ममकार- सदा अनात्मीय, ऐसे कर्म जनित अपने शरीरादिक में जो आत्मीय
अभिनिवेश है वह ममकार है । अथवा पर द्रव्य में ममत्व बुद्धि
ममकार है—जैसे मेरा शरीर, मेरा घर, मेरा परिवार आदि । वस्त्र के प्रभेद-१. अंडज, २. बोंडज, ३. रोमज, ४. वल्कज और ५. चर्मज । गच्छ-गण-तोन पुरुषों/तीन मुनियों के समुदाय को गण कहते हैं और तीन
से अधिक मुनियों के समुदाय को गच्छ कहते हैं । अथवा सात पुरुषनि की परम्परा को गच्छ कहते हैं -मूलाधार
रत्नत्रययुक्त निर्मल आत्मा समय है रयणत्तय-मेव गणं गच्छं गमणस्य मोक्ख-मग्गस्य । संघो गुणसंघादो, समओ खलु णिम्मलो अप्पा ।।१५८।। ____ अन्वयार्थ ( मोखमग्गस्स ) मोक्ष-मार्ग में ( गमणस्य ) गमन करने वाले साधु का ( रयणत्तय-मेव ) रत्नत्रय ही ( गणं गच्छं) गण-गच्छ है ( गुणसंघादो ) गुणों के समूह से ( संघ ) संध है ( खलु ) निश्चय से ( णिम्मलो अप्पा ) निर्मल आत्मा ( समओ ) समय है। ___अर्थ—मोक्ष-मार्ग में गमन करने वाले साधु का रत्नत्रय ही गण है, वही गच्छ है, वहीं गुणों के समूह से सहित संघ है अतः निश्चय निर्मल आत्मा ही समय है।
आचार्य कहते हैं- निश्चय से ज्ञान में आत्मा है, सम्यग्दर्शन में आत्मा है, चारित्र में आत्मा है, प्रत्याख्यान में आत्मा है, संवर में आत्मा है और योगध्यान में आत्मा है