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रयणसार
१२१ जीवमात्र के जीवन में ज्ञान एक सार-पूर्ण गुण हैं, उस ज्ञान की अपेक्षा सारपूर्ण गुण सम्यक्त्व है । क्योंकि सम्यक्त्व से ज्ञान व चारित्र होता है। बिना सम्यक्त्व के ज्ञानाभ्यास व चारित्र का पालन करता हुआ भी पुरुष ज्ञान व चारित्र से रहित कहा जाता है । सम्यक्त्व सहित चारित्र से समस्त कर्मक्षय लक्षण युक्त मोक्ष होता है, अत: सम्यग्दर्शन सबसे उत्कृष्ट है ऐसा जानना चाहिये।
ममकार के त्याग बिना मुक्ति नहीं वसदि पडिमोव-यरणे, गणगच्छे समय-संघ-जाइ कुले । सिस्स पडिसिस्स- छत्ते, सुयजाते कप्पडे पुत्थे ।।१५६।। पिच्छे-संथरणे इच्छासु लोहेण कुणइ ममयारं । यावच्च अट्टरुई, ताव ण मुश्चेदि ण हु सोक्खं ।।१५७।।
अन्वयार्थ—(वसदि पडिमोव-यरणे ) वसति, प्रतिमोपकरण ( गण-गच्छे ) गण में, गच्छ में ( समय-संध-जाइ-कुले ) शास्त्र, संघ, जाति कुल में ( सिस्स-पडिसिस्स-छत्ते ) शिष्य-प्रतिशिष्य में ( सुयजाते ) पुत्र-पौत्र में ( कप्पड़े ) कपड़ों या वस्त्रों में ( पुत्थे ) पुस्तक में (पिच्छे) पिच्छी में ( संथरणे ) संस्तर ( इच्छासु ) इच्छाओं में ( लोहेण ) लोभ से ( ममयारं ) ममकार करता है और ( यावच्च ) जब तक ( अट्टरुदं ) आर्त्त-रौद्रध्यान करता है ( ताव ) तब-तक ( ण मुश्चेदि ) मुक्त नहीं होता ( ण हु सोक्ख ) न उसे सुख मिलता है।
अर्थ-जो साधु वसति में [जिस स्थान में साधु या त्यागी निवास करता है उसे वसति कहते हैं ] प्रतिमोपकरण, गण, गच्छ, शास्त्र, संघ, जाति, कुल में, शिष्य-प्रतिशिष्य में पुत्र-पौत्र, कपड़े/वस्त्रों में, पुस्तक में, पिच्छी, संस्तर, आदि की इच्छाओं में लोभ ममकार करता है तथा जब तक
आत-रौद्र ध्यान करता है, तब तक जीव मुक्त नहीं होता, न उसे सुख ही मिलता है। १."धसहि" पाठ भी है (ब) प्रति । २. सुदजादे भी पाठ है (अ प्रति)