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रयणसार
अन्वयार्थ --- (णिक्खेव णय- पमाण ) निक्षेप-नय-प्रमाण ( सद्दालंकार-छंद-पाडय पुराण) शब्दालंकार, छन्द, नाटकशास्त्र, पुराण आदि का ज्ञान ( लहियाणं ) प्राप्त कर ( कम्मं ) बाह्य क्रियाएँ की; किन्तु ये सब ज्ञान व क्रिया ( सम्मं विणा ) सम्यक्त्व के बिना ( दीह - संसार ) दीर्घ संसार के कारण होते हैं ।
अर्थ — निक्षेप-नय- प्रमाण, शब्दालंकार, विविध छन्द शास्त्र, नाट्य शास्त्र, पुराण आदि का ज्ञान प्राप्त किया, बाह्य क्रियाएँ- आतापन आदि योग, पंचाग्नि तप, घोर उपवास आदि बाह्य तप किये परन्तु ये सब अर्थात् ११ अंग नौ पूर्व तक का ज्ञान व बाह्य तच रूप कठोर अनुष्ठान भी सम्यक्त्व के बिना घोर संसार के कारण होते हैं। अर्थात् यदि कोई मुनि स्पष्ट उच्चारण करता है, तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार, सिद्धान्त और साहित्य को पढ़ता है तथा तेरह प्रकार चारित्र को करता हैं, किन्तु सम्यक्त्व / आत्मस्वभाव से विपरीत है तो वह ज्ञान व चारित्र बालशास्त्र व बालचारित्र हैं । कर्मों के क्षय का हेतु नहीं है अचार्य देव ने कहा भी है
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जदि पढ़दि बहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहे य चरिते ।
तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्सविवरीदं ॥ १०० ॥ मो. प्रा. ।।
आचार्य कहते हैं इस जीव ने निक्षेप-नय-प्रमाण आदि व छन्दन्याय व्याकरण नाट्यशास्त्र, पुराण आदि का बहु ज्ञान प्राप्त किया, बाह्य तप भी किया परन्तु अनात्मवश निज शुद्ध बुद्ध, रूप एक स्वभाव से युक्त चैतन्य - चमत्कार मात्र टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव वाले आत्मा की भावना अथवा सम्यक्त्व की भावना से भ्रष्ट होकर जल में थल में, अग्नि में, वायु में, आकाश में, पर्वत में, गुफा, उत्तरकुरु, देवकुरु नामक भोगभूमि संबंधी कल्पवृक्ष वन, गुफा आदि तथा विदेह रम्यक् हैरण्यवत आदि क्षेत्रों में चिरकाल तक अनन्त अवसर्पिणी उवसर्पिणी काल पर्यन्त निवास किया। इसीलिये कहा है
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गाणं णरस्य सारं सारो वि ारस्य होइ सम्मत्तं ।
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सम्मत्तओ चरणं, चरणाओ होइ णिव्वाणं ॥ ३१ ॥ । ६. प्रा. ।।