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रयणस्तर
अमूदृष्टि ५ उपगूहन ६ स्थितिकरण ७. वात्सल्य,
प्रभावना ।
८.
सम्यग्दृष्टि को दुख कहाँ ? णिय- सुद्धप्पणुरत्तो, बहिरप्पा - वत्थ- वज्जिओ णाणी । जिण - मुणि- धम्मं मण्याइ, गय- दुक्खो होइ सद्दिट्ठी । ६ ॥
अन्वयार्थ – [ जो ] ( 'णाणी) आत्मज्ञानी (णिय-सुद्धप्पणुरनो ) अपनी शुद्ध आत्मा में अनुरक्त रहता है ( बहिरप्पा वत्य - वज्जिओ ) बहिरात्मा की अवस्था से राहत है / पराङ्मुख है ( जिण मुणिधम्मं ) जिनेन्द्र देव, दिगम्बर / परिग्रह रहित मुनि और धर्म को ( मण्णइ ) मानता है--- ऐसा ( सहिट्ठी ) सम्यग्दृष्टि ( गयदुक्खो ) दुखों से रहित (होइ ) होता हैं।
अर्थ- जो विचारशील / विवेकी/ ज्ञानी अपने शुद्ध आत्मा में अनुरक्त हैं, बहिरात्मा अवस्था से रहित हैं, जिनेन्द्र देव, निर्बंध गुरु व दयामयी धर्म को मानता है वह सम्यग्दृष्टि हैं, दुखों से रहित होता है।
४४ दोष रहित सम्यग्दृष्टि
मय- मूढ-मणायदणं, संकाइ - वसण भयमईयारं । जेसिं चउदालेदो, ण संति ते होंति सद्दिट्ठी ।। ७ ।।
अन्वयार्थ - ( जेसिं) जिनके ( मय- मूढमणायदणं ) मद, मूढ़ता और अनायतन ( संकाइ - वसण भयं ) शंकादि दोष, व्यसन भय ( अईयारं ) अतीचार ( चउदालेदो) ये चौवालीस [ ४४ ] दोष ( ग ) नहीं ( संति ) होते हैं (ते ) वे (सद्दिट्ठी ) सम्यग्दृष्टि ( होति ) होते हैं।
अर्थ -- जिन जीवों में आठ मद, तीन मूढ़ता, छ: अनायतन, शंका आदि आठ दोष, सात व्यसन, सात भय और पाँच अतीचार ये ४४ दांत्र नहीं होते है, सम्यग्दृष्टि होते हैं । ८.३.६.८० ७० ७०५=४४ |