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रयणसार
पाँच अतीचार-१ शंका, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. अन्यदृष्टि प्रशंसा, ५. अ-नदृष्टि जस्त। [शेष दीपा के नाम माया म देग्निये ] प्रशंसा - प्रशंसा मन मे होती है । संस्तव- संस्तव वचन से होता है ।
७७ गुणों सहित सम्यग्दृष्टि श्रावक... उहयगुण-वसण-भय-मल-वेरग्गाइचार- भक्तिविग्धं वा । एदे सत्तत्तरिया, दसण-सावय-गुणा भणिया ।।८।।
अन्वयार्थ—( उहयगुण ) दोनों गुण ( वसण-भय-मल-वेरग्गाइचार ) सातव्यसन, भय, मल दोष से रहित, वैराग्ययुक्त, अतिचार रहित ( वा ) और ( भतिविग्घं ) निर्विघ्न भक्ति ( एदे ) ये ( सत्तत्तरिया ) ७७/सतत्तर ( देसण सावय-गुणा ) सम्यग्दृष्टि श्रावक के गुण ( भणिया ) कहे गये हैं।
अर्थ--आठ मूलगुण, बारह उत्तरगुण ऐसे दोनों गुण, सात व्यसन, सात, भय पच्चीस मल-दोष से रहित, वैराग्य युक्त, अतिचार रहित और देव-शास्त्र-गुरु में निर्विघ्न भक्ति ये सतत्तर सम्यग्दृष्टि श्रावक गुण कहे गये हैं। आठ मूलगुण
(अ) १. मद्यत्याग, २. मधुत्याग, ३. माँसत्याग, ४. बड़, ५. पीपल, ६. पाकर, ७. ऊमर और ८. कटुम्बर (अंजीर) इन ५ फलों का त्याग अर्थात् ३ मकार व ५ उदुंबर फलों के खाने का त्याग। (ब) पाँच अणुव्रत---अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का पालन तथा तीन मकारमद्य-माँस-मधु का त्याग=८, मूलगुणों का पालन । ( समन्त. आ.) (स) मद्य-- माँस-मधु का त्याग, रात्रिभोजन त्याग, ५ उदुम्बर फलों का त्याग, पंच-परमेष्ठी को नमस्कार. जीव दया और जल छानना । ८ मूलगुण (पं० आशाधरजी)