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रयणसार
जं आपणाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्स कोडीहिं । तं पाणी तिहि गुत्तो खानदि अत्तोमुत्तमोत्तेण ।। १०८।। छट-ठट्ठ-मदसमदुबालसेहि अणााणियस्न जा सोही । तत्तो लाहुगुणदरिया होज्ज हु जिमिदस्य णाणिस्म ।। १०८|| भ.आ. १. सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जिस कर्म को लाख करोड़ भवों मे नष्ट
करता है। क्षय करता है, उस कर्म को सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियों
से युक्त हुआ अन्तर्मुहूर्त में क्षय करता है। २. अज्ञानी के दो-चार-पाँच-छह-आठ आदि उपवास करने में जितनी
विशुद्धि/कर्मनिर्जरा होती है उससे बहुगुणी विशुद्धि निर्जरा भोजन करते हुए ज्ञानी के होती है।
श्रुत की भावना से उपलब्धि कुसलस्स तवो णिवुणस्स संजमो समपरस्सवेरग्गो। सुदभावेण तत्तिय तह्या सुदभावणं कुणह ।।१५१।। ___ अन्वयार्थ ( कुसलस्स ) कुशल व्यक्ति के ( तवो ) तप होता है ( णिवुणस्स संजमो ) निपुण व्यक्ति के संयम होता है ( समपरस्स ) समता भावी के ( वेरगो ) वैराग्य होता है; और ( सुदभावेण ) श्रुत की भावना से ( तत्तिय ) वे तीनों होते हैं ( तह्मा ) इसलिये ( सुदभावणं ) श्रुत की भावना ( कुणह ) करो ।
अर्थ-जो आत्मा के स्वरूप को जानने में कुशल हैं, उनके तप होता है, जो आत्म स्वरूप को जानने में निपुण हैं उनके संयम होता है, समभावी के भैराग्य होता है और श्रुतज्ञान के अभ्यास से तपश्चरण, संयम तथा वैराग्य तीनों की प्राप्ति होती हैं, अत: श्रुत की भावना/ श्रुत का अभ्यास करना चाहिये।
इस पंचम काल में साक्षात् केवली भगवान् नहीं हैं, श्रुतकेवली भी नहीं हैं । मुनिराज जो आगम के ज्ञाता हैं, श्रुताभ्यासी हैं वे भी सुलभ नहीं हैं, ऐसे समय में एकमात्र माँ जिनवाणी ही हमारी मार्ग-दर्शिका. पथप्रदर्शिका है। आचार्य देव ने इसीलिये लिखा- "आगमचक्खू साहू' 'आगम