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रयणसार
समता-१ समता भाव । ११ प्रतिमा-१. दर्शन प्रतिमा २. व्रत प्रतिमा ३. सामायिक प्रतिमा ४.
प्रोषध प्रतिमा ५. सचित्तत्याग प्रतिमा ६. रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा ७. ब्रह्मचर्य ८. आरंभन्याग प्रतिमा ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा १०.
अनुमनित्याग प्रतिमा ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा। ४ प्रकार का दान- १. आहारदान २. औषधदान ३. शास्त्रदान ४. अभय
दान, जलगालन, रात्रि भोजन त्याग, और रत्नत्रय इस प्रकार श्रावक की कुल ८ . १२+१२+१-११।४+१+१+३=५३ क्रियाएँ हैं।
ज्ञानाभ्यास से मुक्ति णाणेण झाण सिद्धि, झाणादो सव्य-कम्म-णिज्जरणं । णिज्जरण-फलं मोक्खं, णाणम्भासं तदो कुज्जा ।।१५०।।
अन्वयार्थ—(णाणेण ) ज्ञान से ( झाण सिद्धि ) ध्यान की सिद्धि होती है ( झाणादो सब-कम्म-णिज्जरणं ) ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है ( णिज्जरणफलं मोक्खं ) निर्जरा का फल मोक्ष है । ( तदो ) इसलिए ( णाणभासं ) ज्ञानाभ्यास ( कुज्जा ) करना चाहिये।
___ अर्थ—ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है, ध्यान से अष्टकर्मों की निर्जरा होती है, निर्जरा का फल मोक्ष की प्राप्ति है अत: भव्यात्माओं को ध्यान को सिद्ध करने वाले ज्ञानाभ्यास करना चाहिये ।
यहाँ आचार्य देव का तात्पर्य है कि जिस प्रकार सुहागा और नमक के लेप से युक्त कर स्वर्ण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानरूपी निर्मल जल से यह जीव भी शुद्ध होता है । मोह उदय से यह जीव अनादिकाल से अज्ञान मल से मलीन हो रहा है, उसी मलिनता के कारण यह अशुद्ध होकर संसार-सागर में मज्जनोन्मजन कर रहा है। इसलिये ज्ञान से मोह की धारा को दूरकर ज्ञान को निर्मल बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिये । ज्ञान की निर्मलता से ध्यान की विशुद्धि, ध्यान की विशुद्धि से कर्मो की निर्जरा और क्रमनिर्जरा से मुक्ति की प्राप्ति होती है।