________________
रयणसार
११३ वर्तमान में एक तो कलिकाल हैं, दूसरा सम्यक्नय की विवक्षा को लिये उपदेश का न देना है, तीसरा श्रोतृ वर्ग का - कलुषित आशय और चौथा हैं कि जीवों का चित्त प्रायः दर्शनमोह से आक्रान्त है।
इन्हीं सब कारणों से कलिकाल में उपशम सम्यक्त्व नष्ट हो जाता हैं । यहाँ हाथ में आया हुआ रत्न अपने ही हाथों समुद्र में फेंका जाता है ।
श्रावक की त्रेपन क्रिया गुण-वय-तव-सम-पडिमा-दाणं-जलगालणं-अणत्यमिदं । दसण-णाण चरित्तं, किरिया तेवपण सावया भणिया ।।१४९।।
अन्वयार्थ-( गुण ) गुण ( वय ) व्रत ( तव ) तप ( सम ) समता ( पडिया ) प्रतिमा ( दाणं ) दान ( जलगालणं ) जल छानना ( अणत्थमिदं) रात्रि में सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना ( दंसणणाण-चरितं ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ( सावया ) श्रावक की ( तेवण्ण ) ५३ ( किरिया ) क्रियाएं ( भणिया) कही गई हैं।
अर्थ--८ मूलगुण-बड़, पीपल, पाकर, ऊमर, कठूमर, मद्य, मांस, मधु= ५ उदुम्बर का त्याग करना । १२ व्रत- ५ अणुव्रत-१. अहिंसाणुव्रत २. सत्याणुव्रत ३. अचौर्याणुव्रत
४. ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत । ३ गुणव्रत-१. दिग्वत २. देशव्रत ३. अनर्थदंडव्रत । ४ शिक्षाव्रत-१. सामायिक २. प्रोषधोपवास ३, भोगोपभोग
परिमाण और ४. अतिथिसंविभाग। [५+३-४=१२] १२ तप--६ अन्तरंग तप-१. प्रायश्चित्त २. विनय ३. वैय्यावृत्य ४.
स्वाध्याय ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान । ६ बहिरंग तप-१. अनशन २. ऊनोदर ३. वृत्तिपरिसंख्यान ४. रस
परित्याग ५. विविक्तशय्यासन ६. कायक्लेश । १ अणमियं भी पाठ हैं । ( ब प्रति }