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- रबणसार णाणं णरस्स सारं, सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं ।
सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ।।३१।।द.प्रा.।। ज्ञान जीव के सारभूत है, ज्ञान की अपेक्षा सम्यक्त्व सारभूत है क्योंकि सम्यक्त्व से ही चारित्र होता है और चारित्र से निर्वाण की प्राप्ति होती है। अत: सम्यक्त्व गुण प्रधान है।
आचार्य देव आगे और भी कहते हैं कि जब जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं तभी तीर्थकर परमदेव होते हैं। तीर्थंकर बनने के लिए दर्शन-विशुद्धि होना आवश्यक हैं । देव-दानवों से इस संसार में सम्यकदर्शन, सबके द्वारा पूजा जाता है । इस रत्न का मूल्य कोई भी करने में समर्थ नहीं हैं। यदि उसका कोई मूल्य अपने मुख के द्वारा करता है तो सम्यक्त्व के महत्व को ही कम करता है।
कालदोष उवसमइ सम्मत्तं मिच्छत्त-वलेणं पेल्लए तस्स । परि-वटुंति कसाया अवसप्पिणी कालदोसेण ।।१४८।।
अन्वयार्थ ( अवसप्पिणी कालदोसेण ) अवसर्पिणी के कालदोष से ( मिच्छत्त-वलेणं ) मिथ्यात्व के उदय से ( तस्स ) उन जीव का ( उवसमइ-सम्मत्तं ) उपशम सम्यक्त्व ( पेल्लए ) नष्ट हो जाता है और ( कसाया परि-वट्टति ) कषाय पुनः उत्पन्न हो जाती है।
अर्थ-अवसर्पिणी काल के दोष से, मिथ्यात्त्व के उदय से जीवों का उवसम सम्यक्त्व नष्ट हो जाता और कषाय पुन: उत्पत्र हो जाती है।
इस काल में जीवों का सम्यक्त्व शीघ्र नष्ट हो जाता है । इसी सम्बन्ध में समन्तभद्राचार्य लिखते हैंकालः कलिर्वा कलुषाऽशयो वा,
श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनाऽनयो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्व-लक्ष्मी
प्रभुत्वशक्ते- रपवाद-हेतुः ॥५॥