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रयणसार
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के विष का नाश करने वाला हैं, शिव सुख का लाभ करने वाला है साधु उसी सम्यक्त्व की भावना करता है, उसी के बारे में सुनता है, उसी की साधना करता है ।
किसी का इकलौता पुत्र यदि खो जाव अथवा बिना कहे घर से निकल जावे तो जिस प्रकार उसकी खोज करता हैं, जानकारों से मनुष्य है पूछता कि कहीं उन्होंने उसे देखा हैं क्या ? उसे पा जाने की तीव्र इच्छा रखता है, उसकी तीव्रता से बाट जोहता / देखता रहता है- एक मिनट के लिए भी उसका पुत्र उसके चित्त से नहीं उतरता, उसी प्रकार आत्मस्वरूप के जिज्ञासु साधु उस आत्मस्वरूप की उस सम्यक्त्व की ही बात करते हैं, उसी की विशेषता पूछते है, उसी की प्राप्ति की निरन्तर भावना करते हैं। जैसा कि कहा है
तद् ब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रतेत् ॥५३॥
साधु आत्मस्वरूप को अनुभवी पुरुषों से पूछे, उसी की प्राप्ति की इच्छा करें, उसी की भावना में सावधान हुआ आदर बढ़ावे, जिससे यह अज्ञानमय बहिरात्मरूप का त्यागकर परमात्मस्वरूप की प्राप्ति होवे । लोकपूज्य सम्यग्दर्शन
किं बहुणा हो देविंदाहिंद- रिंद गणहरिं देहिं । पुज्जा परमप्पा जे, तं जाण पहाण सम्मगुणं ।। १४७ ।।
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अन्वयार्थ - ( हो ) हे भव्य ( किं बहुणा ) बहुत कहने से क्या लाभ ( देविंदाहिंद-गरिद - गणहरि - देहिं ) देवेन्द्र नागेन्द्र-नरेन्द्र- गणधरेन्द्रों से (जे ) जो ( पुज्जा ) पूजित हैं ( तं ) उनमें ( पहाण - सम्मगुणं ) सम्यक्त्व गुण प्रधान है ।
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अर्थ - हे भव्य ! बहुत कहने से क्या लाभ ? देवेन्द्र नागेन्द्र- गणधरेन्द्रों से जो पूजित हैं उनमें सम्यक्त्व गुण प्रधान है।
आचार्य देव कहते हैं निर्वाण की प्राप्ति में सम्यक्त्व गुण की प्रधानता है