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रयणसार
विमुक्को ) परिग्रह से मुक्त ( सुद्धो-पजोय-संजुत्तो ) शुद्धोपयोग से संयुक्त ( मूलुत्तर गुण पुण्णो) मूल व उत्तर गुणों से पूर्ण योगी ( सिव-गइ पह-णायगो ) शिवगति के पथनायक/मुक्ति मार्ग के नेता ( होइ ) होते हैं।
__ अर्थ—बाह्य १० प्रकार-...क्षेत्र-वास्तु-हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्य-दासीदास-कुप्य व भांड और १४ प्रकार अन्तरंग-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद परिग्रहों से मुक्त रहित, मूल व उत्तर गुणो से पूर्ण शुद्धोपयोगी मुनि मुक्तिमार्ग के नेता हैं । अर्थात् जो योगी अपने शुद्ध आत्मा के बल से अपने स्वरूप मे/संयम में ठहरे हुए हैं तथा बाह्य व अन्तरंग बारह प्रकार के तप के बल से बाह्य तथा आभ्यंतर क्रोधादि परिग्रह से जिनका प्रताप खंडित नहीं होता है । जो अपने शुद्ध आत्मा मे तप रहे हैं, जो वीतराग हैं अर्थात् शुद्धात्मा की भावना के बल से सर्व रागादि दोषों से रहित हैं, मूलउत्तर गुणों से पूर्ण हैं, सुख-दुख में समचित्त हैं, इष्ट-अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में हर्ष-विषाद को त्याग देने से समता भाव के धारी हैं, ऐसे परम शुद्धोपयोगी मुनि मुक्ति-मार्ग के नेता होते हैं ।
सम्यक्-दर्शन की साधना जंजाइ-जरा-मरणं दुह-दुट्ट विसाहि-विस-विणास-यरं । सिव-सुह-लाहं सम्मं संभावइ सुणइ साहए साहू ।।१४६।।
अन्वयार्थ ( जं) जो ( सम्म ) सम्यक्त्व ( जाइ-जरा-मरणं ) जन्म, जरा, मृत्यु ( दुह-दुइ-विसाहि-विस-विणास-यरं ) दुःखरूपी दुष्ट विषधर सर्प के विष का विनाश करने वाला है ( सित्र सुहलाहं ) शिव-सुख का लाभ करने वाला है ( साहू ) साधु ( संभावइ ) उसी सम्यक्त्व की भावना करता है ( सुणइ ) उसी के बारे में सुनता है ( साहए ) उसी की साधना करता है ।
अर्थ-जो सम्यक्त्व जन्म-जग़ का तथा दुःखरूपी दुष्ट विषधर सर्प