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रयासार
तीजा नयन बताया' ! साधु के नेत्र आगम हैं। कहा भी हैअल्पायुषा-मल्पधिया-मिदानी कुत्तः समस्त-श्रुत पाठ शक्तिः । तदत्रमुक्ति प्रतिबीज मात्र-मभ्यस्तता-मात्महितं प्रयत्वात् ।। १२६।।प.नं.।। ____ भव्यात्माओ ! इस पंचम काल में आयु अल्प हैं, ज्ञान निरन्तर क्षीण हो रहा है । अल्पायु तथा क्षयोपशम की होनता के कारण पूर्णश्रुत का अभ्यास नहीं कर सकते हैं । अत: मोक्षाभिलाषी पुरुषों को मुक्ति प्रदायक आत्म-हितकारी श्रुत का अभ्यास तो प्रयत्नपूर्वक करना ही चाहिये । क्योंकि श्रुताभ्यास के बिना कुशलता, निपुणता, समताभावी रूप में निखार नहीं आ पाता । एक श्रुताभ्यासी के पास कुशलता, निपुणता, समरसता सभी होने से वह ज्ञान-तप-वैराग्य और पूर्ण संयम की प्राप्ति कर मुक्ति का भाजन बनता है।
मिथ्यात्व से अनन्त काल भ्रमण काल-मणंतं जीवो, मिच्छत्त-सरूवेण पंच संसारे । हिडदि ण लहइ, सम्म संसार-भमण-पारंभो ।।१५२।।
अन्वयार्थ ( जीवो ) जीव ( मिच्छत्त-सरूत्रेण ) मिथ्यात्वस्वरूप होने से ( अणंतं कालं ) अनंतकाल से ( पंच संसारे ) पंच परावर्तन रूप संसार में ( हिडदि ) भ्रमण कर रहा है; किन्तु ( सम्म ) सम्यक्त्व ( ण लहइ ) प्राप्त नहीं हुआ ( संसार-ब्भमण-पारंभो ) संसार परिभ्रमण बना हुआ है।
अर्थ-जीव मिथ्यात्व-स्वरूप होने से अनन्तकाल से द्रव्य-क्षेत्र- काल-भव, भाव रूप संसार में भ्रमण कर रहा है; किन्तु इसे सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई। इसी का परिणाम है कि संसार परिभ्रमण बना हुआ है। संसार में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। कहा भी है
कालु अणाइ अणाइ जिउ भव सायरु वि अणंतु ।
जीवि विण्णि ण पत्ताइँ जिणु सामिउ सम्मत्तु ।।१४३|| प.प्र.।। काल, जीव और संसार ये तीनों अनादि हैं । इस अनादि संसार में
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