________________
रयगासार
१०७ के तारतम्य की अपेक्षा से ( तुरिय अंतरप्प जहण्णो ) चौथे गुणस्थानवी जघन्य अन्तरात्मा है ( संतो त्ति ) पंचम गुणस्थान से उपशान्त कषाय गुणस्थान पर्यन्त ( मज्झि-मंतर ) मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा ( खीणुत्तम ) क्षीणमोह गुणास्थानवर्ती उत्तम अन्तरात्मा है
और ( जिण-सिद्धा ) १३वे १४वें गुणस्थानवर्ती अरहंत-सयोगकेवली तथा अयोगकेवली और सिद्ध परमेष्ठी परमात्मा हैं।
अर्थमिथ्यात्व, सासादन, मिश्र तीन गुणस्थानों में जीव बहिरात्मा हैं । विशुद्धि के तारतम्य की अपेक्षा चतुर्थ अविरत गुणस्थान में जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं। पंचम देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमतसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, कम लाम्पायर उमातमोर न सा. गुणस्थानों में जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं । क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव उत्तम अन्तरात्मा हैं। और जिन अर्थात् सयोगकेवली, अयोगकेवली गुणस्थानों में व सिद्ध जीत्र परमात्मा हैं। शंका-बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा के भेद किस अपेक्षा से किये गये? समाधान-उपयोग की अपेक्षा । शंका-वह कैसे?
मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से घटता हुआ अशुभोपयोग है । असंयतसम्यग्दृष्टि, देश-विस्त तथा प्रमत्तसंयत गुणास्थानों में तारतम्य से बढ़ता हुआ शुभोपयोग है। अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह ६ गुणस्थानों में तारतम्यता से बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग है तथा सयोगिजिन, अयोगिजिन इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है। [प्र.सा.,पृ.२१]
दोषों के त्याग से मुक्ति मूढ़त्तय सल्लत्तय दोसत्तय-दंड गारवत्तयेहि । परिमुक्को जोई सो सिव-गइ-पह-णायगो होइ ।।१४२।।
अन्वयार्थ ---जो ( जोई ) योगी ( मूढ़त्तय ) तीन मूढ़ता ( सल्लत्तय )