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रयणसार
तीन शल्य ( दोसत्तय ) तीन दोष ( दंड गारवत्तयेहि ) तीन दंड, तीन गारव ( परिमुक्को} परिमुक्त / रहित होता है ( सो ) वह (सिव-गइपह- गायगो) शिव - गति के पथ / मार्ग का नेता होता है ।
अर्थ – जो योगी तीन मूढ़ता देवमूढ़ता, गुरु- मूढ़ता, व लोकमूढ़ता, तीन शल्य - माया, मिथ्या, निदान, तीन दोष- राग, द्वेष, मोह तीन- दंड, मन, वचन, काय और तीन गारव - रसगाव, ऋद्धि गारव और सात गारव से रहित होता है वह मोक्ष पथ का स्वामी / मोक्षमार्ग का नेता अर्थात् अरहंत पद को प्राप्त होता है।
से मुक्ति रयणत्तय-करणत्तय- जोगत्तय- गुत्तित्तय विसुद्धेहिं । संजुत्तो जोई सो सिव- गई पह णायगो होई ।। १४३ ।।
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अन्वयार्थ -- जो ( जोई ) योगां ( रयणत्तय ) तीन रत्न / रत्नत्रय ( करणत्तय ) तीन करण ( जोगत्तय ) तीन योग ( गुत्तित्तय ) तीन गुप्तियों की ( विसुद्धेहिं ) विशुद्धि से (संजुत्तो ) संयुक्त है ( सो ) वह (सिव-गई - पह णायगो ) शिवगति पथनायक / मोक्षगति के मार्ग का नायक ( होई) होता है ।
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अर्थ – जो योगी रत्नत्रय से सुशोभित है, तीन.... से सहित है, मन-वचन-काय तीनों से शुद्ध हैं और मन-वचन-काय रूप गुप्तियों से गुप्त है वह ही मोक्षमार्ग का / शिवगति के मार्ग का नायक होता है ।
आचार्य देव कहते हैं जो मुनि रत्नत्रय से युक्त है वही तीनों से विशुद्ध हो तीन गुप्ति से गुप्त हो परम उदासीनता रूप संयम को प्राप्त होता है। ऐसा संयत ही द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित अथवा शुद्ध बुद्धैक स्वभाव से युक्त निज आत्मा का ध्यान करता है; पश्चात् वह परम पद इन्द्र- धरणेन्द्र मुनीन्द्र द्वारा वन्दित मुक्ति-मार्ग का नेता होता है।