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रयणसार हे भव्य ! जो जीव दर्शन-ज्ञान और चारित्र में स्थिर हो रहा है उसे निश्चय से स्व-समय जानो और जो जीव पुग़ल कर्म के प्रदेशों में तिष्ठा हुआ है, उसे पर-समय जानो।
स्व-समय कौन ? केवल परमात्मा बहिरंत-रप्प- भेयं पर-समयं भण्णए जिणिंदेहिं । परमप्या सग-समयं, तब्भेयं जाण गुणठाणे ।।१४०।। __ अन्वयार्थ—( जिणिंदेहिं ) जिनेन्द्र भगवान् ने ( बहिरंत-रप-भेयं ) बहिरात्मा और अन्तरात्मा इन भेदों को ( परसमयं ) पर समय ( भण्णए ) कहा है ( परमप्पा सण साप ) परमाझा स्टामय है । नभेयं । सादे भेद ( गुणठाणे ) गुणस्थानों की अपेक्षा ( जाण ) जानो ।
अर्थ जिनेन्द्र भगवान् ने बहिरात्मा और अन्तरात्मा को पर-समय और परमात्मा को स्व-समय कहा है। उनके भेद गुणस्थानों की अपेक्षा जानो।
आचार्य देव ने बहिरात्मा और अन्तरात्मा दोनों को ही पर-समय कहा । बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव तो पर-समय है ही परन्तु अन्तरात्मा को परसमय क्यों कहा?
अन्तरात्मा जीव अभी दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थिर नहीं है; रत्नत्रय की पूर्णता, उसमें स्थिरता के बिना स्व-समय संज्ञा नहीं बनती। ____अरहंत व सिद्ध परमात्मा अपने रत्नत्रय में स्थिर हैं, रत्नत्रय की पूर्णता से सम्पत्र हैं अत: अरहंत सिद्ध परमात्मा ही स्वसमय हैं।
__ गुणस्थानों की अपेक्षा आत्मा का वर्गीकरण मिस्सो त्ति बहि-रप्पा, तर-तमया तुरियं अंत-रप्प जहण्णो । संतो ति मज्झि-मंतर खीणुत्तम परम जिण-सिद्धा ।।१४१।।
अन्वयार्थ ( मिस्सो त्ति ) प्रथम गुणस्थान से मिश्र गुणस्थान तक के जीव ( बहिरप्पा ) बहिरात्मा है । ( तर-तमतया ) विशुद्धि