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रयणसार
१०५ अरहंत देव चार घातिया कमी के क्षय से "जीवन्मुक्त कहलाते हैं, वे भी कथंचित् मोक्षरूप ही हैं । क्योंकि निकट समय में पूर्ण मुक्ति को प्राप्त होने ही वाले हैं। उनके वस्तुस्वरूप संबंधी भाव मुक्ति में ले जाने वाले है ।
___ उभय-समय ज्ञाता गति दव्व-गुण-पज्जयेहिं जाणइ पर-सग-समयादि-विभेयं । अप्पाणंजाणइ सो, सिव-गइ-पह-णायगो होइ ।।१३९।।
अन्वयार्थ—जो ( पर-सग समयादि विभेयं ) स्व-समय और पर समय आदि के भेद को ( दव्य-गुण-पज्जयेहिं ) द्रव्य-गुण-पर्यायों के द्वारा ( जाणइ ) जानता है ( सो ) वह ( अप्पाणं ) अपनी आत्मा को ( जाणइ ) जानता है; वहीं ( सिव-गइ-पह-णायगो ) मोक्षगति के मार्ग का नायक/मुक्ति-पथ नायक ( होइ ) होता है।
अर्थ-जो जीव स्व-समय और परसमय आदि के भेद को द्रव्य, गुण, पर्यायों के द्वारा जानता है, वह अपनी आत्मा को जानता है तथा वही मुक्ति पथनायक/मोक्षमार्ग का नेता होता है ।
जीव नामक वस्तु को पदार्थ कहा है। जीव नामा पदार्थ उत्पादव्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप है । दर्शन-ज्ञान मय चेतना स्वरूप है, अनन्तधर्म स्वरूप द्रव्य है । द्रव्य होने से वह वस्तु है, गुण-पर्यायवान् है। स्व-पर प्रकाशक है, चैतन्य गण स्वरूप है । वह अन्य द्रव्यों से एक क्षेत्रावगाह रूप स्थित है तो भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता। ऐसा जीव नामक पदार्थ "समय" है। यह जीव नामा पदार्थ जो कि "समय" है: जब अपने स्वभाव में स्थित होता है तब तो वह स्व-समय है और जब कर्मप्रदेशों में स्थित होता हुआ, पर-स्वरूप राग-द्वेष-मोह स्वरूप परिणमन करता है तब परसमय है । आचार्यदेव समयसार में लिखते हैं
जीवो चरित्तदंसण-णाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण । पुग्गलकम्म पदेसट्टियं च तं जाण परसमयं ॥२॥स.सा.॥