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रयणसार बहिरात्मा जीव के अनादिकालीन अविद्या के कारण कर्मोदयजन्य पर्यायों में आत्म-बुद्धि बनी रहती है । कमोदय से जिस भी पर्याय को प्राप्त होता है, उसी को अपना आत्मा समझ लेता हैं और इस तरह उसका यह अज्ञानात्मक संस्कार/वस्तु स्वरूप संबंधी विपरीत भाव जन्म-जन्मान्तरों में भी बना रहने से दृढ़ होता चला जाता है । जिस प्रकार पत्थरो पर रस्सी आदि को नित्य रगड़ से उत्पन्न चिह्न बड़ी कठिनता से दूर करने में आते हैं, उसी प्रकार आत्मा में हुए इन संस्कारो को दूर करना कठिन हो जाता है । इसी से बहिरात्मा को चतुर्गति रूप संसार में बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं ।
अन्तरात्मा-परमात्मा के भाव मुक्ति के कारण मोक्ख-गइ-गमण-कारण- भूयाणि, पसस्थपुण्ण- हेऊणि । ताणि हवे दुविहप्पा, वत्थु-सरूवाणि भावाणि ।।१३८।। ___ अन्वयार्थ-- ( दुबिहप्पा ) दो प्रकार की आत्मा-अन्तरात्मा व परमात्मा के ( वत्यु-सरूवाणि-भावाणि ) वस्तु-स्वरूप सम्बंधी जो भाव हैं ( ताणि ) वे सब ( मोक्ख-गइ-गमण-कारण-भूयाणि ) मोक्षगति में ले जाने के कारणभूत और ( पसत्थ-पुण्ण-हेऊणि ) प्रशस्त पुण्य के कारण ( हवे ) होते हैं।
अर्थअन्तरात्मा और परमात्मा के वस्तुस्वरूप संबंधी माव मोक्ष गति में ले जाने के कारणभूत और प्रशस्त पुण्य के कारण होते हैं ।
अर्थात् अन्तरात्मा का भाव तो प्रशस्त पुण्य का कारण है और परम्परा मुक्ति का हेतु है। कहा भी है
सम्माइट्ठी पुण्णं ण होइ संसार कारणं णियमा । मोक्खस्स होइ हेडं जह वि णियाणं ण सो कुणइ !|४०४॥ भा.सं.|| सम्यग्दृष्टि/अन्तरात्मा का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं होता है । उसका प्रशस्त पुण्य मोक्ष का ही कारण होता है यदि वह निदान नहीं करे ।
तथा परमात्मा के दो भेद हैं-सकल परमात्मा व निकल परमात्मा । उनमें निकल परमात्मा/सिद्ध भगवान् तो मोक्षरूप ही हैं तथा सकल परमात्मा/