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शुद्ध २०
रत्नमाला
पृष्ठ क्र. 57
अर्थ : गृह कर्म द्वारा संचित पाप गृहविमुक्त अतिथि के प्रति पूजन से वैसा ही नष्ट हो
जाता है, जैसे पानी से खून के दाग ।
पं. आशाधर जी ने लिखा है कि
पञ्चसूनापरः पापं गृहस्थः सञ्चिनोति यत् । तदपि क्षालयत्येव मुनिदान विधानतः ।।
(सागार धर्मामृत ५/४९)
अर्थ : पाँचसूना में प्रवृत्त जो गृहस्थ जिस पाप को सञ्चित करता है, वह गृहस्थ मुनियों के लिए विधिपूर्वक दान देने से उस पाप को भी अवश्य नष्ट कर देता है।
आचार्य पद्मनन्दि ने लिखा है कि -
दाननैव गृहस्थता गुणवती लोकद्वयोद्योतिका. सैवस्यान्ननु तद्विना धनवतो लोकद्वयध्वंस कृत् । दुर्व्यापारशतेषु सत्सु गृहिणः पापं यदुत्पद्यते, तन्नाशाय शशाङ्क शुभ्र यशसे दानं च नान्यत्परम् ।। (पद्मनन्दि पंचविंशतिका ७/१४)
अर्थ : दान के द्वारा ही गुण युक्त गृहस्थाश्रम दोनों लोकों को प्रकाशित करता है. इस के विपरीत उस दान के विना धनवान् मनुष्य का वह गृहास्थाश्रम दोनों लोकों को नष्ट कर देता है। सैकडों दुष्ट व्यापारों में प्रवृत्त होने पर गृहस्थ के जो पाप उत्पन्न होता है, उस को नष्ट करने का तथा चन्द्रमा के समान धवल यश की प्राप्ति का कारण वह दान ही है, उस को छोड़ कर पाप नाश और यश की प्राप्ति का और कोई दूसरा कारण नहीं हो सकता । इस संसार में पात्र का मिलना बहुत दुर्लभ है। अतः पात्र लाभ होने पर दाता को | सम्पूर्ण प्रमाद तज कर दान देना चाहिये।
सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.