________________
गुर I.. - २00
गजर
.. -२०
रत्नमाला
रत्नमाला
पृष्ठ 1. -56
पृष्ठा
- 56
दान का फल पञ्च सूना कृतं पापं यदेकत्र गृहाश्नमे। तत्सर्वमतिथयेवासौ दाता दानेन लुम्पति।। ३०.
अन्वयार्थ :
गृहाश्रमे
गृहस्थाश्रम में
ज्ञातव्य है कि
श्रावकाचार संग्रह |में मथितये की जगह
मतये छपा हुआ है।
यत
पञ्चसूना कृतम् एकत्र पापम्
पंच सूनाओं के द्वारा एकत्रित पाप उन सब को अतिथि को दान देने से
तत्
सर्वम् अथितयेवासौ दानेन दाता लुम्पति
दाता
नष्ट करता है।
अर्थ : गृहस्थाश्रम में पंचसूना के द्वारा जो पाप उपार्जित हुए हैं, वे सब पाप दान करने से नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ : यहाँ पात्रदान का सु-फल बताया जा रहा है।
श्रावक अपने दिनचर्या के समय में पीसना, कूटना, भोजन पकाना, पानी भरना और बुहारना आदि पाप संवर्धक पंच सूना रूप आरंभ करता है। उन क्रियाओं से समुपार्जित पाप कर्म को दाता दान के द्वारा ही नष्ट करता है।
महर्षि समन्तभद्र ने लिखा है कि - गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टिं खलु गृहविमुक्तानाम् | अतिथीनां प्रतिपूजा लधिर-मलं धावते वारि।।
(रत्नकरण्ड प्रावकाचार ११४)
सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.