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रत्नकरण्ड थावकाचार
विधान आदि करना सम्यग्दर्शन की मलिनता को प्राप्त करने का कारण होता है । इसका उत्तर यह है कि यदि धन, पुत्रादि वाञ्छित फल प्राप्त करने की इच्छा से किया जाता है तो अवश्य ही सम्यग्दर्शन की मलिनता का कारण है। किन्तु यदि जैन शासन के संरक्षण एवं संवर्धन के निमित्त निरत उन देवों की उपासना की जाती है, अर्थात उनका यथायोग्य आदर-सत्कार किया जाता है तब वह सम्यग्दर्शन को मलिनता का कारण नहीं होता। ऐसा करने वाले पुरुष को सम्यग्दर्शन का पक्ष होने के कारण, देवता विना याचना किये भी वाञ्छित फल प्रदान कर देते हैं। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो इष्टदेवता विशेष से वाञ्छित फल की प्राप्ति निर्विघ्नरूप से शीघ्र नहीं होती क्योंकि चक्रवर्ती के परिवार (परिकर) की पूजा के बिना सेवकों को चक्रवर्ती से फल की प्राप्ति नहीं देखी जाती है।
विशेषार्थ-मूढ़ता के सामान्यतया तीन ही प्रकार सर्वत्र बताये हैं यदि किसी विवक्षा से कोई अन्य भेद करे तो वे इन्हीं भेदों में गभित हो जाते हैं। इन तीन भेदों में से एक लोकमढ़ता का वर्णन किया। अब देवमूढ़ता को बतलाते हुए कहते हैं कि यदि कोई किसी लौकिक प्रयोजन की सिद्धि करने की लालसा से या वर प्राप्त करने की अभिलाषा रखकर किसी भी राग-द्वेष से मलिन देवता की उपासना करता है तो वह सम्यग्दर्शन का देवमूढ़ता नामका दोष करता है, ऐसा आचार्यों ने कहा है ।
इस विषय में कुछ लोगों की ऐकान्तिक धारणा का मूल कारण जैनागम में शासनदेवों की पूजा का विधान है। दिगम्बर जैनाचार्यों ने पूजा-विधान सम्बन्धी प्रायः सभी ग्रन्थों में शासनदेवों की भी पूजा का उल्लेख किया है। अभी तक किसी भी आचार्य ने इसका विरोध नहीं किया है। प्रत्युत् अब तक जो आम्नाय चली आ रही है, तथा पुरातत्त्व सम्बन्धी प्राचीन जो सामग्री उपलब्ध है, ये उसके अनुकूल प्रमाण हैं। वास्तुशास्त्र-मूर्ति निर्माण आदि की जो विधि पाई जाती है उससे भी यह विषय अच्छी तरह सिद्ध है। इस कारिका में चार बातों को बतलाया है--'आशावान्' कत पद । 'रागद्वेषमलीमसाः देवता:' कर्मपद । 'वरोपलिप्सया' करणपद। 'उपासीत' क्रियापद । ये चार पद हैं जिनको समन्तभद्रस्वामी ने देवमूढ़ता का अभिप्राय व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त किया है अर्थात् अपने किसी भी लौकिक प्रयोजन को सिद्ध करने की लालसा रखने वाला व्यक्ति (आशावान्) यदि किसी भी रागद्वेष से मलिन देवता (रागद्वेष