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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ ७३ नहीं पहुँच सकता, आत्मा अमूर्तिक है। स्नान तो मात्र लौकिक शुद्धि के लिए किया जाता है । यह धर्म नहीं हो सकता । मिथ्या के प्रभाव से हो रहे हैं । लौकिक शुद्धि आठ प्रकार की है— कालशुद्धि, अग्निशुद्धि, मृतिकाशुद्धि, भस्मशुद्धि, गोमयशुद्धि, जलशुद्धि, पवनशुद्धि, ज्ञानशुद्धि । इनसे भी शरीर पवित्र नहीं हो सकता, किन्तु सत्पुरुषों के तो मिध्यात्वमल का नाश करने वाला एक विवेक ही मुख्य स्नान है । अत: लोकमूढ़ता संसार भ्रमण का कारण है ||२२|| देवतामूढं व्याख्यातुमाह- वरोपलिप्सयाशावान् रागद्व ेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ २३ ॥ 'देवतामूढ' 'तदुच्यते' । 'यदुपासीत' आराधयेत् । का देवताः । कथंभूताः 'रागद्वेषमलीमसाः' रागद्वेषाभ्यां मलीमसाः मलिनाः । किंविशिष्टः ? 'आशावान्' ऐहिकफलाभिलाषी । कया ? 'धरोपलिप्सया' वरस्य वाञ्छितफलस्य, उपलिप्सया प्राप्तुमिच्छया । नन्वेवं श्रावकादीनां शासन देवता पूजा विधानादिकं सम्यग्दर्शनम्लानताहेतुः प्राप्नोतीति चेत् एवमेतत् यदि वरोपलिप्सया कुर्यात् । यदा तु शासनसतदेवतात्वेन तासां तत्करोति तदा न तन्म्लानताहेतुः । तत् कुर्वतश्च दर्शनपक्ष-पाताद्वरमयाचितमपि ताः प्रयच्छन्त्येव । तदकरणे चेष्टदेवता विशेषात् फलप्राप्तिविघ्नतो झटिति न सिद्धयति । न हि चक्रवर्तिपरिवारापूजने सेवकानां चक्रवर्तिनः सकाशात् तथा फलप्राप्तिर्दृष्टा ||२३|| अब, देवमूढ़ता का व्याख्यान करने के लिए कहते हैं— ( वरोपलिप्सया ) वरदान प्राप्त करने की इच्छा से ( आशावान् ) आशा से युक्त हो ( राग-द्वेषमलीमसाः ) राग-द्वेष से मलिन ( देवता ) देवों की ( यत् ) जो ( उपासीत ) आराधना की जाती है तत् वह ( देवतामूढं ) देवमूढ़ता ( उच्यते ) कही जाती है । टीकार्थ- जो पुरुष इच्छित फल को प्राप्त करने की अभिलाषा से राग-द्वेष से मलिन देवों की उपासना करता है, उसकी इस उपासना को देवमूढ़ता कहते हैं । यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यदि ऐसा है तो श्रावक आदि का शासन देवों के पूजा
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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