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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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नहीं पहुँच सकता, आत्मा अमूर्तिक है। स्नान तो मात्र लौकिक शुद्धि के लिए किया जाता है । यह धर्म नहीं हो सकता । मिथ्या के प्रभाव से
हो रहे हैं ।
लौकिक शुद्धि आठ प्रकार की है— कालशुद्धि, अग्निशुद्धि, मृतिकाशुद्धि, भस्मशुद्धि, गोमयशुद्धि, जलशुद्धि, पवनशुद्धि, ज्ञानशुद्धि । इनसे भी शरीर पवित्र नहीं हो सकता, किन्तु सत्पुरुषों के तो मिध्यात्वमल का नाश करने वाला एक विवेक ही मुख्य स्नान है । अत: लोकमूढ़ता संसार भ्रमण का कारण है ||२२||
देवतामूढं व्याख्यातुमाह-
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्व ेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ २३ ॥
'देवतामूढ' 'तदुच्यते' । 'यदुपासीत' आराधयेत् । का देवताः । कथंभूताः 'रागद्वेषमलीमसाः' रागद्वेषाभ्यां मलीमसाः मलिनाः । किंविशिष्टः ? 'आशावान्' ऐहिकफलाभिलाषी । कया ? 'धरोपलिप्सया' वरस्य वाञ्छितफलस्य, उपलिप्सया प्राप्तुमिच्छया । नन्वेवं श्रावकादीनां शासन देवता पूजा विधानादिकं सम्यग्दर्शनम्लानताहेतुः प्राप्नोतीति चेत् एवमेतत् यदि वरोपलिप्सया कुर्यात् । यदा तु शासनसतदेवतात्वेन तासां तत्करोति तदा न तन्म्लानताहेतुः । तत् कुर्वतश्च दर्शनपक्ष-पाताद्वरमयाचितमपि ताः प्रयच्छन्त्येव । तदकरणे चेष्टदेवता विशेषात् फलप्राप्तिविघ्नतो झटिति न सिद्धयति । न हि चक्रवर्तिपरिवारापूजने सेवकानां चक्रवर्तिनः सकाशात् तथा फलप्राप्तिर्दृष्टा ||२३||
अब, देवमूढ़ता का व्याख्यान करने के लिए कहते हैं—
( वरोपलिप्सया ) वरदान प्राप्त करने की इच्छा से ( आशावान् ) आशा से युक्त हो ( राग-द्वेषमलीमसाः ) राग-द्वेष से मलिन ( देवता ) देवों की ( यत् ) जो ( उपासीत ) आराधना की जाती है तत् वह ( देवतामूढं ) देवमूढ़ता ( उच्यते ) कही जाती है ।
टीकार्थ- जो पुरुष इच्छित फल को प्राप्त करने की अभिलाषा से राग-द्वेष से मलिन देवों की उपासना करता है, उसकी इस उपासना को देवमूढ़ता कहते हैं । यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यदि ऐसा है तो श्रावक आदि का शासन देवों के पूजा