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________________ ७२ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार किन्तु अविचारीजनों को चाहे जैसी क्रियाओं को देखकर उन पर मोहित होना, उनके ही अनुरूप स्वयं भी बिना विचारे प्रवृत्ति करना उनको सर्वथा सत्य मानना जैसे - जलाशयों में स्नान करने से धर्म मानना, पर्वत से गिरना, वृक्ष से गिरना या अन्य किसी उच्च स्थान से गिरकर अपने को वायु द्वारा विलीन करना आदि । पोपल आदि में बैठकर आग लगा लेना अथवा मृतपति के साथ उसकी चिता में बैठकर जलकर मरना आदि, अग्नि द्वारा आत्मघात करना बालू चूना मिट्टी कंकड़ टोल शिला आदि बड़े-बड़े पत्थरों का ढेर लगाना । इसी प्रकार और भी प्रचलित मान्यताएँ हैं 'काशीकरवट' पृथ्वी में भीतर बैठकर समाधिस्थ होना 'पीपल को यज्ञोपवीत पहनाना' किसी वृक्ष में कपड़ों की चिन्दियों बाँधना इत्यादि । यद्यपि कुछ ऐसी भी लोक मूढताएँ हैं जिनके कदाग्रह का समर्थन किया जाता है परन्तु वास्तव में, वे सब लोकमूढताएँ ही हैं जिनकी प्रवृत्ति अज्ञान मूलक है । रावण त्रिखण्डाधिपति होने के सिवाय अत्यन्त सुन्दर था राक्षस नहीं था, हनुमान कामदेव अत्यन्त सुन्दर तद्भवमोक्षगामी थे बन्दर नहीं थे, पवनंजय महान विद्याधर थे न कि वायु, अंजना भी बानरी नहीं थी, सती साध्वी महिला थी इत्यादि । रविषेणाचार्य ने पद्मपुराण में इनका वास्तविक वंश एवं रूप बतलाया है। किन्तु अज्ञानी प्राणियों ने आज तक उनके विषय में विपरीत मान्यताएँ प्रचलित कर रखी हैं और उनके चित्र मूर्तियाँ भी उसी तरह की बनाते हैं । ! पार्वती को हिमवान पर्वत पर राज्य करने वाले राजा की पुत्री न मानकर साक्षात् पर्वत-पहाड़ की पुत्री मानना पार्वती के पुत्र गणेशजी की शरीर के मैल से उत्पत्ति मानना; सीता के पुत्र कुश को कुश नामक घास से उत्पन्न हुआ मानना, ईश्वर का मत्स्य, कच्छप, सूकर आदि योनियों में अवतार मानना आदि सब लोकमूढ़ताएँ हैं । भारत वर्ष में आजकल हुंडावसर्पिणी काल के दोष से इसी प्रकार की हजारों मिथ्या मान्यताएं प्रचलित हो गई हैं जो अविवेक पूर्ण हैं । इस प्रकार मिथ्यात्व के उदय से देश काल के भेद से लौकिक अज्ञानी जन परमार्थ रहित होकर अनेक प्रकार से इन प्रवृत्तियों को करके धर्मलाभ, धनलाभ, जनलाभादि विविध लाभों की कामना करते हैं, और समुद्र व गंगादि में स्नान कर अपने को पवित्र मानते हैं । किन्तु यह सप्तधातुमय शरीर स्थान से पवित्र नहीं हो सकता | शरीर के स्नान से आत्मा पवित्र कैसे हो सकती है क्योंकि जल आत्मा तक
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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