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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ७१ 'उच्चयः' स्तूपविधानं । केषां ? सिकताश्मनां सिकता वालुका, अश्मानः पाषाणास्तेषां । तथा 'गिरिपातो' भृगुपातादिः । 'अग्निपातश्च' अग्निप्रवेशः । एवमादि सर्व लोकमूद 'निगद्यते' प्रतिपाद्यते ॥२२॥
कैसा सम्यग्दर्शन संसार के उच्छेद का कारण होता है ? यह बतलाने के लिए कहा जाता है 'त्रिमूढापोढं' तीन प्रकार की मढ़ताओं से रहित । उन मूढ़ताओं में प्रथम लोकमूढ़ता को कहते हैं
(आपमा सागर स्नान) धर्म समझकर नदी और समुद्र में स्नान करना, (सिकताश्मनां) बालू और पत्थरों का (उच्चयः) ढेर लगाना, (गिरिपात:) पर्वत से गिरना, (च) और (अग्निपातः) अग्नि में पड़ना (लोकमूढं) लोकमूढता (निगद्यते) कहलाती है।
टोकार्थ-नदी, सागरादि में धर्मबुद्धि-कल्याण का साधन समझकर, स्नान करना लोकमूढ़ता कही गई है किन्तु शरीर प्रक्षालन के अभिप्राय से स्नान करना लोकमूढ़ता नहीं है । तथा बालू और पत्थरों के ऊंचे ढेर लगाकर स्तूप बनाना, पर्वतों से भृगुपात करना अर्थात् पर्वतों की चोटी से गिरकर आत्मघात करना, अग्नि में प्रविष्ट हो जाना। इत्यादि कार्यों के करने में धर्म मानना वह लोकमूढ़ता है।
विशेषार्थ-लौकिक में लोगों से सुनकर या उनकी क्रियाओं को देखकर जो मान्यताएं बन जाती हैं वे सब धर्म नाम से कही जाती हैं। यह मान्यता दो भागों में विभक्त है। एक समीचीन दूसरी मिथ्या । जो युक्ति अनुभव तथा समीचीन तात्त्विक विचार से पूर्ण है एवं जिनका फल दुःखोच्छेद तथा परिपाक कल्याणरूप है वह समीचीन है । और इसके विपरीत जो युक्तिहीन अनुभव के विपरीत तथा अतात्त्विक विषय पर आश्रित है तथा जिसका ऐहिकफल दुःखरूप और पारलौकिक फल अवद्य एवं अहितरूप है वे सभी मान्यताएं मिथ्या हैं । आत्मा के ऐहिक एवं पारलौकिक किसी भी तरह के हिताहित की तरफ दृष्टि न देकर केवल 'भेड़ियाधसान' या 'गतानुगतिकता' से चाहे जैसे कार्यों में प्रवृत्ति करना भी मिथ्या मान्यताओं में ही अन्तर्भूत है। इसी को लोकमढ़ता कहते हैं । यह जीव जब तक मिथ्या मान्यताओं पर विश्वास रखता है तम तक उसके सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता। जिनके ये अविवेकपूर्ण मान्यताएं निकल गई हैं वास्तव में उस विवेकशील के सम्यग्दर्शन का अस्तित्व माना जाता है।