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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
भी हो जाता है। किन्तु जन्म सन्तति का उच्छेद जब तक नहीं हो सकता, तब तक सम्यग्दर्शन सांगोपांग नहीं है । यदि इन अंगों से परिपूर्ण नहीं है तो वह विकलांग कहलायेगा । विकलांग सम्यग्दर्शन अपूर्ण अस्थिर होने से उसका कार्य भी अपूर्ण रहेगा। इसलिए जब तक सम्यग्दर्शन में किसी भी अंश में मल दोष, चल-मलिन-अगाढ़ादि श्रुटि बनी हुई है अथवा अतिक्रम-व्यतिक्रमादि दोष होने से पूर्णतया स्थैर्य नहीं है, तब तक उसके होते हुए भी निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
यदि वास्तविक रूप से देखें तो सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा की पात्रता तो क्षपकश्रेणी में स्थित साधु में है, जो कि आठवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान में निष्पन्न होती है । 'अक्षरन्यून'शब्द उपलक्षण है अतएव अक्षर अधिक भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। आशय यह है कि जिस प्रकार न्यून अक्षर वाला मंत्र वास्तविक कार्य को सिद्धि नहीं कर सकता उसी प्रकार अधिक अक्षर वाला मन्त्र भी पूर्णतया कार्य सिद्धि में असमर्थ है। किन्तु ऐसा आशय भी ग्रहण नहीं करना कि उससे कुछ भी नहीं होता है । क्योंकि धरसेनाचार्य ने भूतबली पुष्पदन्त को परीक्षार्थ एक को न्यून अक्षर वाला
और दूसरे को अधिक अक्षर वाला मन्त्र सिद्ध करने को दे दिया था। उससे विद्या देवता तो सामने उपस्थित हुई परन्तु वास्तविक रूप में न आकर विकृत रूप में आई थीं।
मिथ्यात्व के छूट जाने पर सम्यक्त्व के हो जाने पर भी विरतिपूर्वक अप्रमत्त होकर आत्मा को मलिन करने वाले अथवा स्वरूप में स्थिर नहीं रहने देने वाले कारणों से रहित करने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक रूप में शेष रह जाता है। जो इस बात पर वस्तुतः पूर्ण विश्वास नहीं रखता अथवा प्रमादी है वह भी तब तक सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता जब तक वह अपने सम्यग्दर्शन को सर्वाश में पूर्ण नहीं बना लेता।
__ कानि पूनस्तानि त्रीणि मूढानि यदमूढत्वं तस्य संसारोच्छेदसाधनं स्यादिति चेदुच्यते, लोकदेवतापाखंडिमूठभेदात् त्रीणि मूढानि भवन्ति । तत्र लोकमूढं तावद्दर्शयन्नाह
आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् ।
गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥२२॥ 'लोकमूढं' लोकमूढत्वं । किं ? 'आपगासागरस्नान' आपगा नदी सागर: समुद्रः तत्र श्रेय: साधनाभिप्रायेण यत्स्नानं न पुनः शरीरप्रक्षाननाभिप्रायेण । तथा