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रत्नकरण्ड धावकाचार
[ ७५ मलीमस: ) की उससे पद प्राप्त करने की अभिलाषा ( वरोपलिप्सया ) रखकर (उपासीत) उपासना करता है तो वह सम्यग्दर्शन का दोषमूढ़ता नामका दोष है ।
यह बात सर्वथा सत्य है कि इन चार में से कोई भी कारण यदि पाया जाय तो अवश्य सम्यग्दर्शन मलिन होगा।
आचार्य सोमदेव सूरि ने उपासकाध्ययन में बतलाया है कि पूजन के समय शासनदेवों को यज्ञांश देना चाहिए । किन्तु अरिहन्त भगवान की समान कोटि में उन्हें मान्यता देना अपने आपको गिराना है । कहा भी है--
वेवं जगत्त्रयीनेत्रं व्यस्तराद्याश्चदेवताः । समं पूजाविधानेषु पश्यन् दूरं ब्रजेदधः ।। ताः शासनाधि रक्षार्थ कल्पिताः परमागमे ।
प्रतो यागदानेन माननीयाः सुदृष्टि भिः ।। (यशस्तिलक ८/३६७) अर्थात शासनदेव जैनशासन के रक्षणकार्य में नियोगी हैं अतएव उनको पूजन में उचित अंश देना चाहिए। किन्तु उनको अरिहन्त भगवान के समान समझना एवं समान सम्मान देना अपने को बहुत नीचे गिराना है, क्योंकि कहां तो त्रिलोकाधिपति वीतराग प्रभु जो मोक्षमार्ग के प्रणेता हैं, जिनके सदुपदेश से असंख्य प्राणी सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके मोक्षमार्गी बनते हैं और कहाँ व्यन्तरादिक देव जो उनके शासन में रक्षणीय स्थानों पर अपने-अपने कार्य में नियुक्त हैं। इनको उन-उन के योग्य स्थान देकर एवं सामग्नी देकर सम्मान करना चाहिए। यदि यह सम्मान किसी आशा, हानिलाभ, जीवन-मरणादि लौकिक प्रयोजनवश किया जाता है तब वह अवश्य अतिचार है। क्योंकि वर की प्रार्थना में अपने को नीचा और जिससे प्रार्थना की जा रही है उसे ऊँचा मानने का भाव स्वाभाविकरूप से आ जाता है । ग्रन्थकर्ता ने 'वरोपलिप्सा' को देवमूढ़ता का कारण ही बताया है। यदि यही उपासना शासनदेवों के बजाय मिथ्यादृष्टि देवों की की जाती है तो बहुत बड़ा दोष एवं सम्यग्दर्शन के भंगरूप अनाचार भी हो जाता है ।
प्रश्न-हम तो यह समझते हैं कि वीतराग अरिहन्तदेव को छोड़कर किसी भी देव की उपासना मिथ्या है ?