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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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उसी समय अमरावती नगरी का रहने वाला दिवाकर देव नामका विद्याधर जो कि अपने पुरन्दर नामक छोटे भाई के द्वारा राज्य से निकाल दिया गया था, अपनी स्त्री के साथ मुनिकी वन्दना करने के लिए आया था। उसने उस बालक को उठाकर अपनी स्त्री को सौंप दिया तथा उसका नाम वज्रकुमार रखकर चला गया । वह वज्रकुमार कनक नगर में विमल वाहन नामक अपने मामा के समीप समस्त विद्याओं में पारगामी होकर क्रम-क्रम से तरुण हो गया ।
तत्पश्चात् गरुड़वेग और अंगवती की पुत्री पवनवेगा हेमन्त पर्वत पर बड़े श्रम से प्रज्ञप्ति नामकी विद्या सिद्ध कर रही थी । उसी समय वायु से कम्पित बेरी का एक पैना काँटा उसकी आंख में जा लगा। उसकी पीड़ा से चित्त चंचल हो जाने से उसे विद्या सिद्ध नहीं हो रही थी । अनन्तर वज्रकुमार ने उसे उस अवस्था में देख कुशलतापूर्वक वह काँटा निकाल दिया । काँटा निकल जाने से उसका चित्त स्थिर हो गया तथा विद्या सिद्ध हो गयी । विद्या सिद्ध होने पर उसने कहा कि आपके प्रसाद से यह विद्या सिद्ध हुई है इसलिए आप ही मेरे भर्त्ता हो । ऐसा कर उसने वज्रकुमार के साथ विवाह कर लिया ।
एक दिन वज्रकुमार ने दिवाकर देव विद्याधर से कहा 'तात! मैं किसका पुत्र हूं सत्य कहिये, उसके कहने पर ही मेरी भोजनादि में प्रवृत्ति होगी ।' दिवाकर देव ने पहले का सब वृत्तान्त सच-सच कह दिया । उसे सुनकर वह अपने पिता के दर्शन करने के लिये भाइयों के साथ मथुरा नगरी की दक्षिण गुहा में गया । वहाँ दिवाकर देव ने बन्दना कर बज्रकुमार के पिता सोमदत्त को सब समाचार कह दिया । समस्त भाइयों को बड़े कष्ट से विदा कर वज्रकुमार मुनि हो गया ।
इसी बीच में मथुरा में एक दूसरी कथा घटी । वहाँ पूतिगन्ध राजा राज्य करता था । उसकी स्त्री का नाम उविला था । उविला सम्यग्दृष्टि तथा जिनधर्म की प्रभावना में अत्यन्त लीन थी । वह प्रति वर्ष अष्टाह्निक पर्व में तीन बार जिनेन्द्र देव की रथयात्रा करती थी । उसी नगरी में एक सागरदत्त सेठ रहता था, उसकी सेठानी का नाम समुद्रदत्ता था । उन दोनों के एक दरिद्रा नामकी पुत्री हुई ।
सागरदत्त के मर जाने पर एक दिन दरिद्रा दूसरे के घर में फेंके हुए भात के सीथ खा रही थी। उसी समय चर्या के लिए प्रविष्ट हुए दो मृनियों ने उसे वैसा