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________________ ५६ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार तरानर्थ्यवैडूर्यमणि पारम्पयेणाकण्य लोभात्तन सुबीरेण निजपुरुषाः पृष्टाः तं मणि कि कोऽप्यानेतु शक्तोऽस्तीति । इन्द्रमुकुट मणिमप्यहमानयामीति गलगजितं कृत्वा सूर्यनामा चौरः कपटेंन क्षुल्लको भूत्वा अतिकायक्लेशेन ग्रामनगरक्षोभं कुर्वाण: क्रमेण ताम्रलिप्तनगरौं गतः । तमाकर्ण्य गत्वाऽलोक्य वन्दित्वा संभाष्य प्रशस्य च क्षुभितेन जिनेन्द्रभक्तश्रेष्टिना नीत्वा पार्श्वनाथदेवं दर्शयित्वा मायया अनिच्छन्नापि स तत्र मणिरक्षको धृतः । एकदा क्षुल्लकं पृष्ट्वा श्रेष्ठी समुद्रयात्रायां चलितो नगराबहिनिर्गत्य स्थितः । स चौर क्षुल्लको गृहजनमुपकरण नयनव्यन ज्ञात्वा अर्धरात्रे तं मणि गृहीत्वा चलितः। मणितेजसा मार्गे कोट्टपालई ष्टो धतुमारब्धः। तेभ्यः पलायितुमसमर्थः श्रेष्ठिन एव शरणं प्रविष्टो मां रक्ष रक्षेति चोक्तवान् । कोट्टपालानां कलकलमाकर्ण्य पर्यालोच्य तं चौरं ज्ञात्वा दर्शनोपहासप्रच्छादनार्थ भणितं श्रेष्ठिना मद्वचनेन रत्नमनेनानीतमिति विरूपक भवद्धिः कृतं यदस्य महातपस्विनचौरोद्घोषणा कृता । ततस्ते तस्य वचनं प्रमाणं कृत्वा गताः । स च श्रेष्ठिना रात्री निर्घाटितः । एवमन्येनापि सम्यग्दृष्टिना असमर्थाज्ञानपुरुषादागतदर्शनदोषस्य प्रच्छादनं कर्तव्यं ।।५।। जिनेन्द्रभक्त सेठ की कथा सुराष्ट्र देश के पाटलिपुत्र नगर में राजा यशोधर रहता था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था। उन दोनों के सुबीर नामका पुत्र था। सुवीर सप्तव्यसनों से अभिभूत था तथा ऐसे ही चोर पुरुष उसकी सेवा करते थे । उसने कानों कान सुना कि पूर्व गौड़ देश की ताम्रलिप्त नगरी में जिनेन्द्र भक्त सेठ के सात खण्ड वाले महल के ऊपर अनेक रक्षकों से युक्त श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा पर जो छत्रय लगा है उस पर एक विशेष प्रकार का अमूल्य बैडूर्यमणि लगा हुआ है । लोभवश उस सुधीर ने अपने साथियों से पूछा कि क्या कोई उस मणि को लाने में समर्थ है ? सूर्य नामक चोर ने गला फाड़कर कहा कि यह तो क्या है मैं इन्द्र के मुकूट का मणि भी ला सकता हूँ। इतना कहकर वह कपट से क्षुल्लक बन गया और अत्यधिक कायक्लेश से ग्राम तथा नगरों में क्षोभ करता हुआ क्रम से ताम्रलिप्त नगरी पहुँच गया। प्रशंसा से क्षोभ को प्राप्त हए जिनेन्द्र भक्त सेठ ने जब सुना तब वह जाकर दर्शन कर बन्दना कर तथा वार्तालाप कर उस क्षुल्लक को अपने घर ले आया। उसने पार्श्वनाथ देव के उसे दर्शन कराये और माया से न चाहते हुए भी उसे मणिका रक्षक बनाकर वहीं रख लिया ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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