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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[५७ एक दिन क्षुल्लक से पूछकर सेठ समुद्र यात्रा के लिए चला और नगर से बाहर निकलकर ठहर गया । वह चोर क्षुल्लक घर के लोगों को सामान ले जाने में व्यग्न जानकर आधी रात के समय उस मणिको लेकर चलता बना। मणि के तेज से मार्ग में कोतवालों ने उसे देख लिया और पकड़ने के लिए उसका पीछा किया । कोतवालों से बचकर भागने में असमर्थ हुआ वह चोर क्षुल्लक सेठ की ही शरण में जाकर कहने लगा कि मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। कोतवालों का कलकल शब्द सुनकर तथा पूर्वापर विचार कर सेठ ने जान लिया कि यह चोर है परन्तु धर्म को उपहास से बचाने के लिये उसने कहा कि यह मेरे कह से हो रत्न लाया है, आप लोगों ने अच्छा नहीं किया जो इस महा तपस्वी को चोर घोषित किया। तदनन्तर सेठ के वचन को प्रमाण मानकर कोतवाल चले गये और सेठ ने उसे रात्रि के समय निकाल दिया। इसी प्रकार अन्य सम्यग्दृष्टि को भी असमर्थ और अज्ञानी जनों से आये हुए धर्म के दोष का आच्छादन करना चाहिये ।
स्थितिकरणे वारिषेणो दृष्टान्तोऽस्य कथा
मगधदेशे राजगृहनगरे राजा श्रेणिको राज्ञी चेलिनो पुत्रो वारिषेण: उत्तम श्रावक : चतुर्दश्यां रात्री कृतोपवास: श्मशाने कायोत्सर्गेण स्थितः । तस्मिन्नेवदिने उद्यानिकायां गतया मगधसुन्दरी विलासिन्या श्रीकीर्तिश्रेष्ठिन्या परिहितो दिव्यो हारो दृष्ट: । ततस्तं दृष्ट्वा किमनेनालंकारेण विना जीवितेनेति संचिन्त्य शय्यायां पतित्वा सा स्थिता । रावी समागतेन तदासक्तेन विद्युच्चरेणोक्तं प्रिये ! किमेव स्थितासीति । तयोक्तं श्रीकीतिष्ठिन्या हारं यदि मे ददासि तदा जीवामि त्वं च मे भर्ता नान्यथेति श्र त्वा तां समुदीर्य अर्धरात्रे गत्वा निजकौशलेन तं हारं चोरयित्वा निर्गतः । तदुद्योतेन चौरोऽयमिति ज्ञात्वा गृहरक्षक: कोट्टपालश्च ध्रियमाणो पलायितुमसमर्यो वारिषेणकुमारस्याग्रे तं हारं धृत्वाऽदृश्यो भूत्वा स्थितः कोट्टपालश्च तं तथालोक्य श्रेणिकस्य कथितं देव ! वारिषेणश्च चौर इति । तं श्रुत्वा तेनोक्तं मूर्खस्यास्य मस्तकं गृह्यतामिति । मातंगेन योऽसि: शिरोमहणार्थ बाहित: स कण्ठे तस्य पुष्पमाला बभूव । तमतिशयमाकर्ण्य श्रेणिकेन गत्वा वारिषेण : क्षमा कारितः । लब्धाभयप्रदानेन विद्युच्चरचौरेण राज्ञो निजवृत्तान्ते कथिते वारिषेणो गृहे नेतुमारब्धः । तेन चोक्तं मया पाणिपात्रे भोक्तव्यमिति । ततोऽसौ सूरसेनमुनिसमीपे मुनिरभूत । एकदा राजगृहसमीपे पलाशकूटग्रामे चर्यायां स प्रविष्टः । तत्र श्रेणिकस्थ योऽग्निभूतिमंत्री तत्पुत्रेण पुष्पडालेन स्थापितं,