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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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उन्होंने स्वच्छ सरोवर में उत्तम मिट्टी से शुद्धि की । इन सब क्रियाओं से उन्हें मिथ्यादृष्टि जानकर क्षुल्लक ने भन्यसेन का अभव्यसेन नाम रख दिया ।
तदनन्तर दूसरे दिन क्षुल्लक ने पूर्व दिशा में पद्मासन पर स्थित चार मुखों सहित यज्ञोपवीत आदि से युक्त तथा देव और दानवों से बन्दित ब्रह्मा का रूप दिखाया। राजा तथा भव्यसेन आदि लोग वहां गये परन्तु रेवती रानी लोगों से प्रेरित होने पर भी नहीं गयी । बह यही कहती रही कि यह ब्रह्म नामका देव कौन है ? इसी प्रकार दक्षिण दिशा में उसने गरुड़ के ऊपर आरूढ़, चार भुजाओं सहित तथा गदा शंख आदि के धारक नारायणका रूप दिखाया। पश्चिम दिशा में उसने बल पर आरूढ़ तथा अर्धचन्द्र जटाजूट पार्वती और गणों से सहित शंकर का रूप दिखाया। उत्तर दिशा में उसने समवसरण के मध्य में आठ प्रातिहार्यों सहित सुरनर, विद्याधर और भनियों के समूह से वन्द्यमान पर्यंकासन सहित तीर्थंकर देव का रूप दिखाया। वहां सब लोग गये परन्तु रेवती रानी लोगों के द्वारा प्रेरणा की जाने पर भी नहीं गयी। वह यही कहती रही कि नारायण नौ ही होते हैं, रुद्र ग्यारह ही होते हैं और तीर्थकर चौबीस ही होते हैं ऐसा जिनागम में कहा गया है । और वे सब हो चुके हैं । यह तो कोई मायावी है। दूसरे दिन चर्या के समय उसने एक ऐसे क्षुल्लक का रूप बनाया, जिसका शरीर बीमारी से क्षीण हो गया था । रेवती रानी ने जब यह समाचार सुना तब वह भक्तिपूर्वक उसे उठाकर ले गयी । उसका उपचार किया और पथ्य कराने के लिए उद्यत हुई। उस क्षुल्लक ने सब आहार कर दुर्गन्ध से युक्त वमन किया। रानी ने वमन को दूर कर कहा कि 'हाय मैंने प्रकृति के विरुद्ध अपथ्य आहार दिया ।' रेवती रानी के उक्त वचन सुनकर क्षुल्लक ने सन्तोष से सब माया को संकोच कर उसे गुप्ताचार्य को परोक्ष बंदना कराकर उनका आशीर्वाद कहा और लोगों के बीच उसकी अमूढ़द्दष्टिता की खूब प्रशंसा की। यह सब कर क्षुल्लक अपने स्थान पर चला गया । राजा वरुण शिवकीर्ति पुत्र के लिए राज्य देकर तथा तप ग्रहण कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ तथा रेवती रानी भी तप कर ब्रह्म स्वर्ग में देव हुई ।
उपगहने जिनेन्द्र भक्तो दृष्टान्तोऽस्य कथा--
सुराष्ट्रदेशे पाटलिपुत्रनगरे राजा यशोधरो राज्ञी सुसीमा पुत्रः सुवीरः सप्तध्यसनाभिभूतस्तथाभूततस्करपुरुषसेवितः । पूर्वदेशे गौडविषये ताम्रलिप्तनगर्या जिनेन्द्रभक्तश्रेष्ठिनः सप्तत लप्रासादोपरि बहुरक्षकोपयुक्त पाश्र्वनाथ प्रतिमाछत्रत्रयोपरि विशिष्ट