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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ५४ व्याधिक्षीणशरीर क्षुल्लकरूपेण रेवतीगृहप्रतोलीसमीपमार्गे मायामूच्छेया पतितः । रेवत्या तमाकर्ण्य भक्त्योत्थाप्य नीत्वोपचारं कृत्वा पथ्यं कारयितुमारब्धः। तेन च सर्वमाहार भुक्त्वा दुर्गन्धवमनं कृतं । तदपनीय हा ! विरूपकं मयाऽपथ्यं दत्तमिति रेवत्या वचनमाकर्ण्य तोषान्मायामुपसंहृत्य तां देवीं वन्दयित्वा गुरोराशीर्वाद पूर्ववृत्तान्तं कथयित्वा लोकमध्ये तु अमूढष्टित्वं तस्या उच्चैः प्रशस्य स्वस्थाने गतः । वरुणो राजा शिवकीर्तिपुत्राय राज्यं दत्वा तपो गृहीत्वा माहेन्द्रस्वर्गे देवो जातः । रेवत्यपि तपः कृत्वा ब्रह्मस्वर्गे देवो बभूव ।।४।। रेवती रानी की कथा विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणि सम्बन्धी मेघकूट नगर का राजा चन्द्रप्रभ, अपने चन्द्रशेखर पुत्र के लिए राज्य देकर, परोपकार तथा बन्दना भक्ति के लिए कुछ विद्याओं को धारण करता हुआ दक्षिण मथुरा गया और वहाँ गुप्ताचार्य के समीप क्षुल्लक हो गया । एक समय वह क्षुल्लक, बन्दना-भक्ति के लिए उत्तर मथुरा की ओर जाने लगा। जाते समय उसने गुप्ताचार्य से पूछा कि क्या किसी से कुछ कहना है । भगवान गुप्ताचार्य ने कहा कि सुव्रतमुनि को वन्दना और वरुणराजा की महारानी रेवती के लिए आशीर्वाद कहना। क्षुल्लक ने तीन बार पूछा फिर भी उन्होंने इतना ही कहा । तदनन्तर क्षुल्लक ने कहा कि बहाँ ग्यारह अंग के धारक भव्य सेनाचार्य तथा अन्य धर्मात्मा लोग भी रहते हैं, उनका आप नाम भी नहीं लेते हैं। उसमें कुछ कारण अवश्य होगा, ऐसा विचार कर क्षुल्लक उत्तर मथुरा गया। वहाँ जाकर उसने सुखतमुनि के लिए भट्टारक की वन्दना कही । सुव्रत मुनि ने परम वात्सल्यभाव दिखलाया। उसे देखकर वह भव्यसेन की वसतिका में गया । क्षुल्लक के वहां पहुंचने पर भव्यसेन ने उससे संभाषण भी नहीं किया । भव्यसेन शौच के लिए बाहर जा रहे थे सो क्षुल्लक उनका कमण्डल लेकर उनके साथ बाह्यभूमि गया और विक्रिया से उसने आगे ऐमा मार्ग दिखाया जो कि हरे-हरे कोमल तृणों के अंकुरों से आच्छादित था । उस मार्गको देखकर क्षल्लक ने कहा भी कि आगम में ये सब जीव कहे गये हैं। भव्यसेन आगम पर अरुचि-अश्रद्धा दिखाते हुए तृणों पर चले गये । क्षुल्लक ने विक्रिया से कमण्डलु का पानी सूखा दिया । जब शुद्धि का समय आया तब कमण्डल में पानी नहीं है तथा कहीं कोई विक्रिया भी नहीं दिखाई देती है, यह देख बे आश्चर्य में पड़ गये। तदनन्तर
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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