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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
५२ ] होने पर सेठ प्रियदत्त तो वन्दना-भक्ति करने के लिए गये। इधर जिनदत्त सेठ की स्त्री ने अत्यन्त गौरवशाली पाहुने के निमित्त उत्तम भोजन बनाने और घर में चौक पुरने के लिए कमलश्री आर्यिका की श्राविका को बुलाया, वह श्राविका सब काम करके अपनी वसतिका में चली गई । वन्दना-भक्ति करके जब प्रियदत्त सेठ वापिस आये तब चौक देखकर उन्हें अनन्तमती का स्मरण हो आया। उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। गद्गद वचनों से अश्रुपात करते हुए उन्होंने कहा कि जिसने यह चौक पूरा है, उसे मुझे दिखलाओ । तदनन्तर वह श्राविका बुलायी गई। पिता और पुत्री का मेल होने पर जिनदत्त सेठ ने बहुत भारी उत्सव किया । अनन्तमती ने कहा कि पिताजी! अब मुझे तप दिलादो मैंने एक ही भव में संसार की विचित्रता देख ली है। तदनन्तर कमलश्री आर्यिका के पास दीक्षा लेकर उसने बहुत काल तप किया । अन्त में संन्यासपूर्वक मरणकर उसको आत्मा सहस्रार स्वर्ग में देव हुई।
निर्विचिकित्सिते उद्दायनो दृष्टान्तोऽस्य कथा
एकदा सौधर्मेन्द्रण निजसभायां सम्यक्त्वगुणं व्यावर्णयता भरते वत्सदेशे रीरकपुरे उद्दायनमहाराजस्य निर्विचिकित्सितगुणः प्रशंसितस्तं परीक्षितु वासवदेब उद्बरकूष्ठ कुथितं मुनिरूपं विकृत्य तस्यैव हस्तेन विधिना स्थित्वा सर्वमाहारं जलं च मायया भक्षयित्वातिदुर्गन्धं बहुषमनं कृतवान् । दुर्गन्धभयानष्टे परिजने प्रतीच्छतो राशस्तदेव्याश्च प्रभावत्या उपरि छदितं, हाहा ! विरुद्ध आहारो दत्तो मयेव्यात्मानं निन्दयतस्तं च प्रक्षालयतो मायां परिहृत्य प्रकटी कृत्य पूर्ववृत्तान्तं कथयित्वा प्रशस्य च तं, स्वर्ग गतः। उदायनमहाराजो वर्धमान स्वामिपादमूले तपोगृहीत्वा मुक्ति गत: । प्रभावती च तपसा ब्रह्मस्वर्गे देवोबभूव ।।३।।
उद्दायन राजा को कथा एक बार अपनी सभा में सम्यग्दर्शन के गुणों का वर्णन करते हुए सौधर्मेन्द्र ने वत्स देश के गैरकपुर नगर के राजा उद्दायन महाराज के निर्विचिकित्सित गुण की बहत प्रशंसा की । उसकी परीक्षा करने के लिये एक बासब नामका देव आया । उसने विक्रिया से एक ऐसे मुनि का रूप बनाया जिसका शरीर उदुम्बर कुष्ठ से गलित हो रहा था। उस मुनि ने विधिपूर्वक खड़े होकर उसी राजा उद्दायन के हाथ से दिया हुआ समस्त आहार और जल माया से ग्रहण किया। पश्चात् अत्यन्त दुर्गन्धित वमन