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________________ ५० । रत्नकरण्ड श्रावकाचार ताडनायुपसर्गः कृतः । देवता काचिदियमिति भीतेन तेनावासित सार्थ पुष्पकनाम्नः सार्थवाहस्य समर्पिता । सार्थवाहो लोभ दर्शयित्वा परिणेतुकामो न तथा वाञ्छितः। तेन चानीयायोध्याया कामसेनाकुट्टिन्याः समर्पिता, कथमपि वेश्या न जाता । ततस्तया सिंह राजस्य राज्ञो दर्शिता तेन च रात्रौ हठात् सेवितुमारब्ध । नगरदेवतया तद्वतमाहात्म्येन तस्योपसर्गः कृतः । तेन च भीतेन गृहानिःसारिता । रुदती सखेदं सा कमलश्रीक्षांतिकया श्रायिकेति मत्वाऽतिगौरवेण धृता । अथानन्तमतीशोक विस्मरणार्थ प्रियदत्तश्रेष्ठी बहुसहायो वन्दनाभक्ति कुर्वन्नयोध्यायां गतो निजश्यालक जिनदत्तवेष्ठिनो गहे संध्यासमये प्रविष्टो रात्री पुत्री हरणबार्ता कथितवान । प्रभाते तस्मिन् वन्दनाभक्ति कतु गते अति गौरवितप्राधूर्णकनिमित्त रसवती कतु गृहे चतुष्कं दातु कुशला कमलश्रीक्षांतिका श्राविका जिनदत्त मार्यया आकारिता | सा च सर्व कृत्वा वसतिकां गता। वन्दनाभक्ति कृत्वा आगतेन प्रियदत्त श्रेष्ठिना चतुष्कमालोक्यानन्तमती स्मृत्वा गह्वरितहृदयेन गद्गदित वचनेनाथ पातं कुर्वता भणितं-यया ग्रहमण्डनं कृतं तां मे दर्शयेति । ततः सा आनीता तयोश्च मेलापके जाते जिनदत्त श्रेष्ठिना च महोत्सवः कृतः । अनन्तमत्या चोक्तं तात ! इदानीं मे तपो दापय, दृष्टमेकस्मिन्नेव भवे संसार वैचित्र्यमिति । ततः कमलश्रीक्षांतिकापावें तपो गृहीत्वा बहुना कालेन विधिना मृत्वा तदात्मा सहस्रार कल्पे देवो जातः ॥ २ ॥ अनन्तमती की कथा अंगदेश को चम्पानगरी में राजा वसुवर्धन रहते थे। उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था । प्रियदत्त नामका सेठ था, उसकी स्त्री का नाम अलबती था और दोनों के अनन्तमती नामकी एक पुत्री थी। एक बार नन्दोश्वर-अष्टाह्निका पर्व की अष्टमी के दिन सेठ ने धर्मकीर्ति आचार्य के पादमूल में आठ दिन तक का ब्रह्मचर्य व्रत लिया। सेठ ने क्रीड़ावश अनन्तमती को भी ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया । अन्य समय जब अनन्तमती के विवाह का अवसर आया तब उसने कहा कि पिताजी ! आपने तो मुझे ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया था, इसलिए विवाह से क्या प्रयोजन है ? सेठ ने कहा-मैंने तो तुझे क्रीड़ावश ब्रह्मचर्य दिलाया था । अनन्तमती ने कहा कि प्रतरूप धर्म के विषय में क्रीड़ा क्या वस्तु है ? सेठ ने कहा-पुत्रि ! नन्दीश्वर पर्व के आठ दिन के लिए ही तुझे ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया था, न कि सदा के लिए अनन्तमती ने कहा कि पिताजी ! भट्टारक महाराज ने तो वैसा नहीं कहा था। इस जन्म में मेरे
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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