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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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चोर उस वेश्या के यहां गया तब उसने कहा कि यदि तुम मुझे कनका रानी का हार लाकर दे सकते हो तो मेरे भत्ता बन सकते हो, अन्यथा नहीं । तदनन्तर अजन चार रात्रि में हार चुराकर आ रहा था कि हारके प्रकाश से वह जान लिया गया। अङ्ग रक्षकों
और कोटपाल' ने उसे पकड़ना चाहा परन्तु वह हार छोड़कर भाग गया। वटवृक्ष के नीचे सोमदत्त बटुक को देखकर उसने उससे सब समाचार पूछे तथा उससे मन्त्र लेकर वह सीके पर चढ़ गया। उसने निःशंकित होकर उस विधि से एक ही बार में सीके की सब रस्सियाँ काट दी। ज्यों ही बह शस्त्रों के ऊपर गिरने लगा त्यों ही विद्या सिद्ध हो गई । सिद्ध हुई विद्या ने उससे कहा कि मुझे आज्ञा दो। अञ्जन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास ले चलो। उस समय जिनदत्त सेठ सुदर्शन मेरु के चैत्यालय में स्थित था। विद्या ने अञ्जन चोर को ले जाकर सेठ के आगे खड़ा कर दिया। अपना पिछला वृत्तान्त कह कर अञ्जन चोर ने सेठ से कहा कि आपके उपदेश से मुझे जिस प्रकार यह विद्या सिद्ध हुई है उसी प्रकार परलोक की सिद्धि के लिए भी आप मझे उपदेश दीजिये । तदनन्तर चारण ऋद्धिधारी मनिराज के पास दीक्षा लेकर उसने कैलाश पर्वत पर तप किया और केवलज्ञान प्राप्त कर वहीं से मोक्ष प्राप्त किया।
निःकांक्षितत्वेऽनन्तमतीदृष्टान्तोऽस्याः कथा ।
अंगदेशे चंपानग- राजा वसुवर्धनो राज्ञी लक्ष्मीमती श्रेष्ठी प्रियदत्तस्तद्भार्या अंगवती पत्र्यनंतमती। नन्दीश्वराष्टम्यां श्रेष्ठिना धर्मकोत्याचार्यपादमूलेऽष्टादिनानि ब्रह्मचर्य गृहीतं । क्रीडयाऽनन्तमतो च ग्राहिता । अन्यदा सम्प्रदानकालेउनन्तमत्योक्ततात ! मम त्वया ब्रह्मचर्य दापितमतः कि विवाहेन ? श्रेष्ठिनोक्त क्रीडया मया ते ब्रह्मचर्य दापितं । ननु तात ! धर्मे व्रते का क्रीडा । ननु, पुत्रि ! नन्दीश्वराष्टदिनान्येव व्रतं तव न सर्वदा दत्त । सोवाच ननु तात ! तथा भट्टारकैरविवक्षितत्वादिति । इह जन्मनि परिणयने मम निवत्तिरस्तीत्युक्त्वा सकलकलाविज्ञान शिक्षां कुर्वन्ती स्थिता । यौवनभरे चत्रे निजोद्याने आन्दोलयन्ती विजया दक्षिण श्रेणिकिन्नरपुरविद्याधरराजेन कुण्डलमण्डित नाम्ना सुकेशी निजभार्यया सह गगनतले गच्छता इष्टा । किमनया बिना जीवितेनेति संचित्य भार्यां गृहे धृत्वा शीघ्रमागत्य विलपन्ती तेन सा नीता। आकाशे गच्छता भार्यां दृष्ट्वा भीतेन पर्णलघुविधाः समर्प्य महाटव्यां मुक्ता। तत्र च तां रुदन्तीमालोक्य भीमनाम्ना भिल्लराजेन निजपल्लिकायां नीत्वा प्रधान राजीपदं तव ददामि मामिच्छेति भणित्वा रात्रावनिच्छतीं भोक्तुमारब्धा । व्रतमाहात्म्येन वनदेवतया तस्य