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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
प्रजन चोर की कथा धन्वन्तरि और विश्वलोमा पुण्यकर्म के प्रभाव से अमितप्रभ और विद्युत्प्रभ नामके देव हुए । और एक दूसरे के धर्म की परीक्षा करने हेतु पृथिवीलोक पर आये । तदनन्तर उन्होंने यमदग्नि ऋषि को तप से विचलित किया। मगधदेश के राजगृह नगर में जिनदत्त नामका सेठ उपवास का नियम लेकर कृष्ण पक्षकी चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान में कायोत्सर्ग से स्थित था। उसे देखकर अमितप्रभ देवने विद्युत्नभ से कहा कि हमारे मुनि तो दूर रहें, इस गृहस्थ को ही तुम ध्यान से विचलित कर दो । तदनन्तर विद्युत्प्रभ देव ने उस पर अनेक प्रकार के उपसर्ग किये, फिर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। तदनन्तर प्रातःकाल अपनी माया को समेटकर विद्युत्प्रभ ने उसकी बहुत प्रशंसा की और उसे आकाशगामिनी विद्या दी । विद्या प्रदान करते समय उससे कहा कि तुम्हें यह विद्या सिद्ध हो चुकी है, दूसरे के लिए पञ्चनमस्कार मन्त्रकी अर्चना और आराधना विधि से सिद्ध होगी। जिनदत्त के यहाँ सोमदत्त नामका एक ब्रह्मचारी वटु रहता था, जो जिनदत्त के लिए फूल लाकर देता था। एक दिन उसने जिनदत्त सेठ से पूछा कि आप प्रात:काल ही उठकर कहां जाते हैं ? सेठ ने कहा कि मैं अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना भक्ति करने के लिए जाता है। मुझे इस प्रकार से आकाशगामिनी विद्या का लाभ हुआ है, सेठ के ऐसा कहने पर सोमदत्त वटु ने कहा कि मुझे भी यह विद्या दो, जिससे मैं भी तुम्हारे साथ पुष्पादिक लेकर वन्दना भक्ति करूगा । तदनन्तर सेठ ने उसके लिए विद्या सिद्ध करने की विधि बतलाई ।
सोमदत्त वट ने कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान में वटवक्ष की पूर्व दिशा वाली शाखा पर एकसौ आठ रस्सियों का मूजका एक सींका बांधा। उसके नीचे सब प्रकार के पैने शस्त्र ऊपर की ओर मुख कर रखे । पश्चात गन्ध, पुष्प आदि लेकर सीके के बीच प्रविष्ट हो उसने वेला-दो दिनके उपवास का नियम लिया। फिर पञ्चनमस्कार मन्त्र का उच्चारण कर छुरी से सींके की एक-एक रस्सी को काटने के लिए तैयार हुआ। परन्तु नीचे चमकते हुए शस्त्रों के समूह को देखकर वह डर गया तथा विचार करने लगा कि यदि सेठ के वचन असत्य हुए तो मरण हो जाएगा। इस प्रकार शंकित चित्त होकर वह सीके पर बार-बार चढ़ने और उतरने लगा।
उसी समय, राजगही नगरी में एक अञ्जन सुन्दरी नामकी वेश्या रहती थी। एक दिन उसने कनकप्रभ राजा की कनकारानी का हार देखा । रात्रि को जब अञ्जन