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मनःपर्ययज्ञान-जो इन्द्रियों की सहायता के बिना दुसरे के मन में स्थितरूपी पदार्थ को द्रध्य, क्षेत्र, काल, भाव को मर्यादा को लिये स्पष्ट जानता है उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं, यह ज्ञान मुनियों के होता है। मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं-ऋजमति, विपुलमति । ऋजुमति प्रतिपाती है, विपुलमति अप्रतिपाती । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति अधिक विशुद्ध है। ऋजमति तो सामान्य मुनियों के भी हो सकता है परन्तु विपुलमति उन्हीं मुनियों के होता है जो तद्भवमोक्षगामी हैं। इसका अंतरंग कारण मनःपर्ययज्ञानाबरण का क्षयोपशम है।
केवलज्ञान-जो मोहनीय और शेष घातिया कर्मों के सर्वथाक्षय हो जाने पर तेरहवें गुणस्थान में प्रकट होता है, यह ज्ञान क्षायिक है तथा बाह्य पदार्थों की सहायता के बिना लोकालोक के समस्त पदार्थों को और उनकी त्रिकाल सम्बन्धी अनन्त पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान असहाय है, यह ज्ञान गुण की सर्वोत्कृष्टपर्याय है सादी अनन्त है इस ज्ञान को प्राप्त करने वाला मनुष्य अधिक से अधिक देशोनपूर्वकोटि वर्ष के भीतर नियम से मोक्ष चला जाता है यह ज्ञान सकल प्रत्यक्ष कहलाता है।
अतः पांचों ज्ञान प्रमाणरूप हैं। प्रमाण के परोक्ष और प्रत्यक्ष की अपेक्षा दो भेद हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान परोक्ष, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान प्रत्यक्षज्ञान हैं।
अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान देश प्रत्यक्ष है और केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है।
सम्यक्चारित्र-चारित्र के दो भेद हैं-निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र । अपने शुद्ध स्वरूप में रमण (निश्चल) होने को निश्चयचारित्र कहते हैं ।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पंच पापों से निवृत्त होने को व्यवहार चारित्र कहते हैं । यह चारित्र सकल विकल के भेद से दो प्रकार का है। पंच पापों का सर्वथा त्यागरूप सकलचारित्र कहलाता है यह मुनियों के होता है । और पंच पापों का एक देश त्याग विकलचारित्र कहलाता है, यह गृहस्थों के होता है । सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही होती है, इसके बिना चारित्र में समीचीनता नहीं आती।