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ज्ञान क्षायिक है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है ।
मतिज्ञान-जो पांचों इन्द्रिय और मनकी सहायता से पदार्थों को जानता है वह मतिज्ञान है, इसके अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा की अपेक्षा चार भेद हैं, ये चारों ज्ञान बहु-बहुविध आदि बारह प्रकार के पदार्थों को विषय करते हैं इसलिए अड़तालीस भेद हुए ये पांचों इन्द्रियों और मन से होता है अतः दो सौ अठासी भेद हुए ।
___ अवग्रह के दो भेद हैं-व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । अस्पष्ट पदार्थ का व्यञ्जनावग्रह ही होता है तथा यह चक्षु व मन से नहीं होता इसलिए बहु आदि बारह को चार से गुणा करने पर अड़तालीस भेद व्यजनावग्रह के होते हैं, एवं अर्थावग्रह के दो सौ अठासी इस प्रकार सब मिलकर मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ।
श्रुतज्ञान-मतिज्ञान के बाद अस्पष्ट अर्थ की तर्कणा को लिए हुए जो ज्ञान होता है उसे थ तज्ञान कहते हैं यह ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इस श्र तज्ञान के पर्याय, पर्यायसमास आदि की अपेक्षा बीस भेद हैं। अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट की अपेक्षा दो भेद हैं । अंगबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के आचारांगादि बारह भेद हैं । तथा यह द्रव्यश्च त चार अनुयोगों में विभक्त है--प्रथमानुयोग, करणानयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग इन चारों अनुयोगों का अभ्यास करके व्यक्ति समीचीन ज्ञान को दृढ़ कर सकता है ।
___ अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान तो अपने अपने आवरणों के क्षय होने पर स्वयं प्रकट हो जाते हैं, उनमें मनुष्यों का पुरुषार्थ नहीं चलता, केवल पुरुषार्थ के बल पर तो श्रु तज्ञान को प्रकट किया जा सकता है। अतः अप्रमादी बन कर श्रु ताभ्यास करना चाहिए।
____ अबधिज्ञान--जो इन्द्रिय, मन तथा अन्य पदार्थों की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिए हुए रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है वह अवधिज्ञान है । अवधिज्ञान चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है यह ज्ञान भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय दोनों प्रकार का होता है, इसका अंतरंग कारण अवधिज्ञालावरण का क्षयोपशम है। अवधिज्ञान के देशावधि परमावधि सविधि ये तीन भेद होते हैं । देशावधि चारों गतियों में हो सकता है परन्तु परमावधि-सर्वावधिज्ञान चरमशरीरी मुनियों के होते हैं।