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रत्नकरण्ड श्रावकाचार पोषण हो तथा उन्मार्ग की तरफ जाने से उनकी रक्षा हो । सम्यादष्टि के लक्ष्य में यह बात सदा रहनी चाहिए कि किसी छोटे से एक दोष के कारण उस व्यक्ति का सर्वथा परित्याग कर देना अथवा उसकी उपेक्षा कर देना हितकर नहीं हो सकता, उसके हित के लिए प्रयत्नशील रहना कर्तव्य है इस प्रकार सम्यग्दर्शन के स्थितीकरण अंग का वर्णन किया ।। १६ ॥
अथ वात्सल्यगुणस्त्ररूपं दर्शने प्रकटयन्नाह
स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाथापेतकतवा ।
प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥१७॥
'वात्सल्य सधामणि स्नेहः । 'अभिलप्यते' प्रशिक्षाद्यते । कासौ ? 'प्रतिपत्तिः' पजाप्रशंसादिरूपा । कथं ? 'यथायोग्य' योग्यानतिक्रमेण अलिकरणाभिमुखगमनप्रशंसावचनोपकरणसम्प्रदानादिलक्षणा। कान् प्रति ? 'स्वयूथ्यान् जनान् प्रति । कथं भूता ? 'सद्भावसनाथा' सद्भावेनावऋतया सहिता चित्तपूविकेत्यर्थः । अत एव 'अपेतकैतवा' अपेतं विनष्टं कैतवं भाया यस्याः ।।१७।।
आगे सम्यग्दर्शन के वात्सल्य गुण का स्वरूप प्रकट करते हुए कहते हैं----
स्वयथ्यान्प्रति-अपने सहधर्मी बन्धुओं के समूह में रहने वाले लोगों के प्रति (सद्भावसनाथा) अच्छे भावों से सहित और (अपेतकैतवा) माया से रहित (यथायोग्य) उनकी योग्यता के अनुसार ( प्रतिपत्तिः ) आदर सत्कार आदि करना ( वात्सल्य ) वात्सल्यगुण (अभिलप्यते) कहा जाता है।
____टोकार्थ-'स्वस्थयूथ: स्व यूथः तस्मिन् भवाः स्वयूथथ्यास्तान्' अपने सहधर्मी बन्धुओं के समूह में रहने वालों को स्वयूथ्य कहते हैं । इन सहमियों के प्रति सद्भावना सहित अर्थात् सरलभाव से मायाचार रहित, यथायोग्य-हाथ जोड़ना, सम्मुख जाना, प्रशंसा के वचन कहना तथा योग्य उपकरण आदि देकर जो आदर सत्कार किया जाता है, वह वात्सल्यगुण कहलाता है।
__ 'वत्सलस्यभावः कर्म वा वात्सल्यम्' वात्सल्य का अर्थ सहधर्मी भाइयों के प्रति धार्मिक स्नेह का होना।